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________________ जनगार १५१ अध्याय २ उपादान कारण है तो उसका निमित्त कारण कौन माना जायगा ? क्योंकि विना निमित्त कारणके कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता । यह कार्यमात्र केलिये नियम है कि अन्तरङ्ग और बाह्य दोनो कारणोंके मिले विना वह उत्पन्न नहीं हो सकता। अत एव चेतना - कार्यकेलिये भी भूतचतुष्टयको अन्तरंग उपादान कारण मानलेनेपर भी सहकारी कारणकी अपेक्षा होगी। यदि दूसरे पक्ष के अनुसार भूतचतुष्टयको उसका निमित्त कारण माना जाय तो जीवतत्त्व भूतचतुष्टयसे भिन्न ही है ऐसा सिद्ध होता है । और ऐसा होनेपर " पृथिवी जल अग्नि और वायु ये चार ही तच्च हैं " ऐसा चार्वाकोंका नियम किस तरह स्थिर रह सकता है ? इससे सिद्ध होता हैं। कि जीवतत्व भूतचतुष्टयका कार्य नहीं है । चेतना किसको कहते हैं सो बताते हैं: - अन्वितमहमिकया प्रतिनियतार्थावभासबोधेषु । प्रतिभासमानमखिलैर्यद्रूपं वेद्यते सदा सा चित् ॥ ३४ ॥ यथायोग्य इन्द्रियोंके ग्रहण करने योग्य घटपटादिक पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले ज्ञानोंमें अन्वित और अहमहमिका - जिस मैंने पहले घटको देखा और जाना था वही मैं अब वस्त्रको देख जान रहा हूं. इस तरहके पूर्वाकार और उत्तराकारको विषय करनेवाले संवेदनके द्वारा अपने स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले जिस रूपका सभी सदा स्वयं अनुभव करते हैं उसीको चेतना कहते हैं। इस चेतनाके तीन भेद हैं; कर्मफल चेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना । कौनसा जीव प्रधानतया किस चेतनाका अनुभव जब कि चेतनाके न भेद हैं तो यह बताइये कि करता है ? इसका उत्तर देते हैं -- सर्वे. कर्मफलं . मुख्य मावेन स्थावरास्त्रसाः । SEKASEMMMMM धर्म० १५१
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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