SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार पूर्ण घरकी अपेक्षा शून्य वन अच्छा। क्योंकि यद्यपि वह विविक्त स्थान है किंतु हिंसाका स्थान तो नहीं है। और इसके सिवाय इस घरमें रहनेसे तो प्राप्त भी संवेग नष्ट हो जाता है । किंतु उस वनमें रहनेसे संवेगीका संवेग बढता है । इतना ही नहीं किंतु अलब्ध जो अभी तक उन्हे कभी प्राप्त नहीं हो सका है ऐसा शुद्धात्मतत्व प्राप्त हो जाता है। गृहकार्यमें जो निरंतर विशेष रूपसे आसक्त रहनेवाले हैं उन्हे जो निरंतर दुःख प्राप्त हुआ करते हैं उनपर अपशोच प्रकट करते हैं:-- विवेकशक्तिवैकल्याद् गृहद्वन्द्वनिषद्वरे । मग्नः सीदत्यहो लोकः शोकहर्षभ्रमाकुलः ॥ १२६ ॥ जिससे हिताहितका विवेचन किया जा सकता है ऐसी विवेकशक्तिसे विकल रहनेके कारण हाय ये बहिदृष्टि लोक गृहस्थाश्रमके कार्यकलापके झगडेरूपी कर्दममें फसकर शोक और हर्षके चक्करसे व्याकुल हुए व्यर्थ ही खेदको प्राप्त हो रहे हैं। भावार्थः-जिस प्रकार कीचमें फसा हुआ कोई आदमी सामर्थ्यका प्रतिबन्ध होजानेसे अपनेको उसमेंसे अलग न करसकनेपर दुःखी हुआ करता है उसी प्रकार गृहस्थाश्चममें फसा हुआ मनुष्य जिसके द्वारा वह उससे अपने को पृथक् कर सकता है ऐसी विवेकशक्तिका प्रतिबन्ध होजानेपर उसमें फसा हुआ ही खिन्न--संक्लिष्ट रहा करता है। क्योंकि वह शोक हर्षके परिवर्तनसे व्याकुल होजाता है अथवा हर्ष विषाद और भ्रमसे उसका चित्त आस्थर होजाता है। जैसा कि कहा भी है कि:-- रतेररतिमायातः पुना रतिमुपागतः । तृतीयं पदमप्राप्य बालिशो वत सीदति ।।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy