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________________ अनगार रतेररतिमायातः पुना रतिमुपागतः । तृतीयं पदमप्राप्य बालिशो बत सीदति ॥ ये अज्ञानी प्राणी रतिके बाद अरति ओर अरतिके बाद पुनः रतिको प्राप्त हो कर जो व्यर्थ ही क्लेश भोगरहे हैं उसका कारण यही है कि इन दोनोंके चक्करमें पडकर इन्होंने अभीतक तीसरे पदको प्राप्त नहीं किया है। राग द्वेषसे रहित उपेक्षातत्व-वीतराग अवस्थाको ये अभीतक प्राप्त नहीं कर सके हैं। अथवा:-- वासनामात्रमेवैतत् सुखं दुःखं च देहिनाम् । तथा घजयन्त्येते भोगा रोगा इवापदि । प्राणियोंकेलिये यह सुख है और यह दुःख यह केवल वासना-कल्पना ही है-विषयोंको सुखकर या दुःखकर समझना भ्रम ही है। क्योंकि, देखते हैं कि आपत्तिमें ये सभी भोग रोगोंकी तरहसे प्राणियोंको उद्विग्न -पीडित किया करते हैं। क्षेत्र परिग्रहके दोष बताते हैं:-- क्षेत्रं क्षेत्रभृतां क्षेममाक्षेत्रज्यं मृषा न त । अन्यथा दुर्गतेः पन्था बहारम्भानुबन्धानात् ॥ ११॥ . क्षेत्रज्ञ कोई पदार्थ नहीं है इस सिद्धान्तको आक्षत्रय कहते हैं । क्षेत्रज्ञ नाम आत्माका है। क्योंकि क्षेत्र शब्दका अर्थ शरीर होता है और उसके अनुभव करनेवालेको क्षेत्रज्ञ कहते हैं। बौद्धोंका सिद्धान्त है कि "जीव नामका कोई भी पदार्थ नहीं है"। इसी प्रकार चार्वाकोंका सिद्धान्त है कि गर्भस लेकर मरण तक ही अ. ध.५६ अध्याय ४४२ ENTERTRENESENTERTAINMENT
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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