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________________ अनागर ८२४ ६-अपने ललाटपर अपने हाथ के अंगुष्ठको अंकुशकी तरह रखकर वन्दना करना अंकुशित नामका छठा दोष है। ७-बैठकर बंदना करनेवाला यदि कच्छपके समान चेष्टा करे, अर्थात् बैटे २ ही कछुए की तरह धीरेसे रेंगनेकी क्रिया करे तो वह सातवां कच्छपरिङ्गित नामका दोष है। मत्स्योद्वत स्थितिमत्स्योद्वर्तवत् त्वेकपार्श्वतः । मनोदुष्टं खेदकृतिश्र्वाद्युपरि चेतसि ॥ १.१॥ ८-जिस प्रकार मछली एक भागको ऊपर करके उछला करती है उसी प्रकार वंदना करनेवाला यदि एक भागको-कटिभागको ऊपर को निकालकर वन्दना करने के लिये स्थित हो तो उसको आठवां मत्स्योदर्न नामका दोष समझना चाहिये। ५-अपने मनमें गुरु-आचार्यादिके ऊपर आक्षेप करना-खिच होना मनोदुष्ट नामका दोष है । वेदिबद्धं स्तनोत्पीडो दोभ्यावा जानुबन्धनम् । भयं क्रिया सप्तभयाद्विभ्यत्ता बिभ्यतो गुरोः ॥ १.२॥ १०-अपनी छातीके स्तनमागोंका मर्दन करना दशवां वेदिकाबद्ध नामका दोष है। अथवा योगपट्टकी तरह दोनों भुजाओंके द्वारा अपने दोनों घुटनोंको बांध लेना यह भी वेदिका बद्ध नामका ही दोष है । ११- इस लोकमय परलोकमय अकस्मात् भय मरणभय इत्यादि सात प्रकारकी भयके वशीभूत होकर आवश्यक क्रिया करना इसको ग्यारहवां भयनामका दोष समझना । १२- गुरु आचार्य आदि से डरते हुए आवश्यक कर्म करना विम्यत्ता [विम्यतः कर्म विम्यत्ता] नामका बारहवां दोष है। भक्तो गणो मे भावीति वन्दारोऋद्धिगौरवम् । बध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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