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वियोगको सुखका कारण समझना केवल मनकी कल्पना ही है, वास्तविक नहीं । इसी बातका विचार करते हैं:
योगो ममेष्टैः संकल्पात सुखोऽनिष्टैवियोगवत् ।
कष्टश्चेष्टवियोगोन्यैर्योगवन्न तु वस्तुतः ॥ ३० ॥ जिमप्रकार अनिष्ट-अप्रशस्त वस्तुओंका वियोग मुझे सुखकर मालुम होता है उसीप्रकार प्रियपदार्थोकी प्रातिभी मुझे सुखमय अथवा सुखका कारण मालुम हुआ करती है। किंतु यह सब कल्पना ही है, वास्तविक नहीं । अनिष्ट वियोग और इष्टमंयोग वस्तुतः सुखमय और सुखकर नहीं है। इसी प्रकार इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोगमें कष्ट है ऐसा जो मैं समझताहूं यद्वा उनको कष्ट-दुःखका कारण मानताहूं मो भी कल्पनाही है।
भावार्थ--किमीभी पदार्थका इष्ट या अनिष्ट समझना तथा उनकी प्राप्तिको सुख दुःखरूप या उसका कारण मानना वास्तविक ज्ञान नहीं, काल्पनिकही है। अतएव उनके होनेपर रागद्वेश करना वृथा है।
क्रमानुसार मित्रोंमें राग और शत्रुओंमें द्वेष करनेकामी निषेध करते हैं:- ममकारग्रहावेशमूलमंत्रेषु बन्धुषु ।
__ को ग्रहो विग्रहः को मे पापघातिष्वरातिषु ॥ ३१ ॥ ये मेरे हैं, अथवा ये मेरे उपकारी हैं, इस तरहकी जो समझ हुआ करती है वह एक प्रकारके ग्रहक, आवेश है। क्योंकि जिस प्रकार मनुष्य ब्रह्मराक्षसादिका शरीरमें प्रवेश होजानेसे अनेक तरहकी विकृत चेष्टाएं किया करता है उसीप्रकार ममत्वबुद्धिके होनेपरभी किया करता है। किन्तु इसका भी मूलमंत्र ये बन्धुजन हैं। जिस प्रकार मन्त्रके निमित्तसे भूतादिका आक्रमण होता है उसीप्रकार कुटुम्बियोंके निमित्तसे ममत्वपरिणाम हुआ करते हैं। इसके विरुद्ध जिनको शत्रु कहाजाता है वे तो मेरेलिये दुःख उत्पन्न करके या कराके पूर्वजन्मके संचित पाप कर्मका घात-निर्जरा कारणभूत बनकर उपकार ही करते हैं। अत एव अपकारक बन्धुओंसे तो ग्रह-राग कैसा, और उपकारी शत्रुओंसे विग्रह-विद्वेष फैसा? भावार्थ-किसीको भी मित्र या शत्रु समझकर उनसे रागद्वेष करना व्यर्थ है।
बध्याय