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________________ अनगार । एको मे सासदो जादा गाणदसणलक्षणो। सेसा मे बाहिरा भावा सब्बे संजोगलक्खणा। संजोगमूळ जौवेण पत्ता दुःखपरंपरा । ' वम्हा संजोगसंबंध सव्वं तिविहेण बोस्सरे ॥ “मेरा यह एक शास्वत आत्मा ही ज्ञानदर्शनलक्षणवाला या ज्ञानदर्शनस्वरूप है और बाकीके जितने ये बाह्य भाव-पदार्थ हैं उन सबसे मेरा केवल संयोग ही है। आज तक इस जीवने जो दुःखपरंपरा प्राप्त की है उसका मूल यही संयोग है। अत एव मैं मन वचन और काय इन तीनोही के द्वारा इस समस्त संयोगको ही छोडता हूं।" इन शब्दोंका ज्ञान होजानेपर जो विशेष उहापोहरूप तर्कणा होती है उसीको श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुत शब्दके साथ जो पर-शब्दका प्रयोग किया है वह प्रधान अर्थमें है। जैसा कि ऊपर भी दिखाया गया है। इस प्रधानार्थक पर-शब्दके प्रयोगसे यह बात भी समझलेनी चाहिये कि जो स्वार्थ-ज्ञानात्मक श्रुतज्ञानकी भावनामें सदा लीन रहते हैं वे भी कदाचित् अनादिकालीन वासनाके वशसे परार्थ शब्दात्मक श्रुतज्ञानमें तत्पर होजाया करते हैं। परार्थ श्रुतज्ञानकी अपेक्षा श्रुत शब्दका अर्थ, " श्रूयते-श्रुतम्" इस निरुक्तिके अनुसार जो सुना जाय उसको श्रुत कहते हैं, ऐसा होता है। इससे श्रुत-शब्द शब्दप्रधान होजाता है । यहांपर इस अपेक्षा श्रुत-शब्दके साथ जो "सु" शब्द लगा है उसका प्रयोजन शब्दात्मक श्रुतज्ञानकी प्रशंसा दिखानेका है । शब्द वे ही प्रशंसनीय हैं कि जिनके द्वारा शुद्ध और चिदानन्दस्वरूप आत्माका प्रतिपादन किया जाय, या उसके विषयमें प्रश्नादि किये जाय । क्योंकि मोक्षकी इच्छा रखनेवालोंको ऐसा ही श्रुत अभिमत हो सकता है। और इसका नाम "सुश्रुत है । कहा भी है कि तद् ब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाविद्यात्मक रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् । इति । अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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