SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 605
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार स्वामिन्पृच्छ वनद्विपान्नियमितान्नाथाश्रुपिल्लाझषी:, पश्याधीश विदन्त्यमी रविकराः प्रायः प्रभोग्नेः सखा । कि दूरेधिपते व पक्कणभुवां दौःस्थित्यमित्येकशः, प्रत्युप्तप्रभुशक्ति खैरिव जगडावन्निरुन्ध्यान्मनः ॥ ३९ ॥ कुलीन पुरुषों को अपने मुंह अपनी तारीफ करना शोभा नहीं देता, वह उनके लिये लज्जाका ही कारण माना है। अतएव में अपने मुंह अपनी तारीफ क्या करूं, पर आपको मेरा पगक्रम जानना है तो “ हे स्वामिन् मन! आप जरा उन जंगली हाथियोंसे ही पूछिय जो कि इस समय स्तम्भोंसे बँधे हुऐ हैं !" " हे नाथ! आप उस रोती हुई मछलीकी तरफ देखिये," उसीसे मेरा आपको पराक्रम मालुम पडजायगा। " हे अधीश! मेरे कामको तो प्रायः ये सूर्यकी किरणें ही जानती हैं।" "हे प्रभो! यह आग्नका मित्र वायु क्या कुछ दर है?" पास ही तो है; अतएव मेरे कार्यके विषयमें इसीसे पूछिये । क्योंकि सदा सर्वत्र रहनेवाला यही मेरे कृत्यका साक्षी हो सकता है। "हे अधिपते ! क्या आपने कहीं भी अहेरिया या भील आदिकोंकी आजीविका कष्टमय देखी है ?" नहीं । फिर वे जो सर्वत्र सुखपूर्वक आजीविका करलेते हैं वह किसका प्रताप है ? इस प्रकार प्रत्येक स्पर्शन रसन घाण चक्षु और श्रोत्र इन पांचो इन्द्रियोंने क्रमसे ऊपर लिखे मूजव जो मनके समक्ष अपनी मामर्थ्य प्रकट करने के लिये व्यंग्यपूर्ण वचन कहे हैं उनसे यह बात अच्छी तरह मा. १-यह स्पर्शनेन्द्रियका कथन है। इसी प्रकार आगे क्रमसे रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्रका भी कथन है उसको भी घटित करलेना चाहिये । EERS NEIGHEETEHRITTENSANSAR VERENS NARENERISTIANE अध्याय HOSTHE KAREKRE HEAR ५९३
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy