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________________ अनगार १९२ अध्याय ६ सुधीः समरसाप्तये विमुखयन् खमर्थान्मन, - स्तुदोथ दवयन्स्वयं तमपरेण वा प्राणितः । तथा स्वमपसारयन्नुत नुदन् सुपिच्छेन तान्, स्वतस्तदुपमेन वापहृतसंयमं भावयेत् ॥ ३८ ॥ रागद्वेषको उद्भूत कर चित्तको क्षुब्ध करदेनेवाले स्पर्श दिक विषयोंसे स्पर्शनादिक इन्द्रियोंको पराङ्मुख रखना इसको उत्तम इंद्रियसंयम कहते हैं। उन विषयोंको स्वयं इस तरहसे दूर रखना कि जिससे इंद्रियां उनको ग्रहण न कर सकें, इसको मध्यम इन्द्रियमंयम कहते हैं। और गुरु आदिकी आज्ञा प्रभृतिके द्वारा प्रेरित होकर उन विषयोंको इन्द्रियोंसे परे रखना इसका जघन्य इन्द्रियसयम कहते हैं। स्वयं उपस्थित प्राणियों मे अपने को पृथक रखना युक्त प्रतिलेखन -- पीछीके द्वारा अपने शरीगदिकके ऊपरसे उन कहते हैं। तथा वैसी पीछीके न होनेपर उसके समान दूसरे प्राणिसंयम कहते हैं । इसको उत्तम प्राणिसंयम कहते हैं। और पांच गुणोंसे जीवों को दूर कर देना इसको मध्यम प्राणिसंयम मृदु वस्त्रादिके द्वारा प्राणियोंके दूर करनेको जघन्य विवेकपूर्वक कार्य करनेवाले मुमुक्षुओं को उपेक्षासंयम की सिद्धि अथवा प्राप्ति के लिये इन छहों प्रकारके अपहृत संयमका भले प्रकार अभ्यास करना चाहिये । जो मन अपने वशमें नहीं रहता वह बाह्य विषयोंकी तफ दौड़ा करता है, इस बातको ध्यान में रखकर ग्रन्थकर्ता अपने अपने विषयोंसे प्राप्त होनेवाल प्रचण्ड दुःखौको दिखानेवाली स्पर्शनादिक इन्द्रियों में से एक एकके द्वारा अपनी अपनी सामर्थ्यका प्रतिपादन कराकर जगतमें स्वतन्त्रतया घूमनेवाले मनका निरोध करने के लिये उपदेश देते हैं: १ – पीछीके आचार्योंने पांच गुण बताय हैं। धूलिरहित, प्रस्वेदरहित, मृदु, सुकुमार, और लघु । ५९२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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