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२--समीचीन आनायका धारण-प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार || अनुयोगोंसे युक्त पूर्ण आगमको आम्नाय कहते हैं। अथवा पिता व गुरुके चले आये संतानक्रमको भी आम्नाय कहते हैं। इन दोनों ही समीचीन आम्नायोंको इस तरहसे धारण करनेवाला होना चाहिये कि जिसमें किसी भी तरहसे विच्छेद न पडा हो। तात्पर्य यह कि उक्त आचार्यमें दूसरा विशेष गुण यह भी होना चाहिये कि वह परम्परासे चले आये हुए उपदेश और संतानक्रमसे आये हुए तत्त्वज्ञान तथा सदाचारके पालन करनेमें प्रवीण हो।।
३- तीसरा गुण धीरता है । क्योंकि क्षुधा पिपासा आदि परीषहों तथा देव मनुष्य आदिके किये हुए उपसगाके आ उपस्थित होनेपर भी जिसका हृदय सर्वथा अविकृत रहता है वही गणी धर्मकी देशनाका आधिकारी हो सकता है।
. ४- चौथा गुण लोकस्थितिका ज्ञान है । क्योंकि इस चराचर जगत्की स्थितिका जिसको ज्ञान नहीं है वह धर्मका उपदेश कैसे दे सकता है । अथवा चार वर्ण और चार आश्रमोंको भी लोक कहते हैं। इनकी स्थितिप्रवृत्ति नियम व्यवहारादिकका जो ज्ञान रखता है वही धर्मका उपदेश दे सकता है। .
५-पांचवां गुण स्वमत और परमतका अद्वितीय ज्ञान है। क्योंकि ऐसा ज्ञान रखनेवाला व्यक्ति ही विद्वानोंके समक्ष धर्मके स्वरूपका अच्छी तरह प्रतिपादन कर सकता है। उसको सिद्ध करके बता सकता है और उसका प्रभाव प्रकट कर अवस्थान रख सकता है।
६-छहा गुण अद्वितीय वाग्मिता है। क्योंकि जिसकी वाणी प्रशस्त तथा अतिशययुक्त नहीं है वह धर्मके स्वरूपका हृदयग्राही प्रतिपादन कैसे कर सकता है ? किंतु इसके विरुद्ध जिसके वचन प्रशस्त तथा ! सातिशय हैं. वही व्यक्ति धर्मके वास्तविक स्वरुपको श्रोताओंके हृदयंगम करा सकता है।
७-सातवां गुण समीचीन मूर्तिका होना है। वक्ताका शरीर भी प्रशस्त-सामुद्रिक शास्त्रमें बताये
अध्याय
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