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________________ बनगार ३९७ जो व्यक्ति हर्षके साथ गुरूपदेशके अनुसार सदा व्यवहार करता है और तरुण पुरुषोंकी संगति छोडकर वृद्ध पुरुषों के बीच सदा उनके निकट ही रहता है, कहना चाहिये कि वह व्यक्ति अपने ब्रह्मचर्य व्रतको निर्मल रखता है। वृद्ध और इतर पुरुषोंकी संगतियोंके फलमें जो अन्तर है उसको बताते हैं: - कालुष्यं पुस्युदीर्ण जल इव कतकैः संगमाद्वयेति वृद्धरश्मक्षेपादिवाप्तप्रशममपि लघुदेति तषिङ्गसङ्गात् । । वाभिर्गन्धो मृदीवोद्भवति च युवभिस्तत्र लीनोपि योगाद्, . रागो द्राग्वृद्धसङ्गात्सरटवदुपलक्षेपतश्चैति शान्तिम् ॥ ९७ ॥ यथायोग्य निमित्तको पाकर मनुष्योंके हृदयमें उद्धृत हुआ कालुष्य-द्वेष शोक भयादिरूप संक्लेश अथवा इनके द्वारा प्रकट होनेवाला कष्मलभाव वृद्ध पुरुषोंकी संगतिसे--बढते हुए ज्ञान संयमादि गुणोंसे युक्त पुरुषोंकी संगतिसे इस तरहसे प्रशमको प्राप्त होजाता है जसे कि निर्मली फलके चूर्णका सम्बन्ध पाकर जलकी पङ्किलता प्रशान्त होजाया करती है। किंतु यह प्रशान्त भी कालुष्य विट पुरुषोंके संसर्गसे शीघ्न ही फिर उद्भूत हो जाता है। जसे कि उस प्रशान्त जलमें यदि पत्थर डाल दिया जाय तो उसका गदलापन शीघ्र ही फिरसे ऊपर आजाया करता है। इसी प्रकार दूसरी बात यह भी है कि यदि मनुष्योंके हृदयमें कषायभाव लीन-अनुद्भूत हो-जो अबतक जागृत न हुआ हो तो वह तरुण-विट पुरुषोंकी संगतिसे इस तरहसे उद्भूत-उदित होजाता है जैसे कि जलके सम्बन्धसे मीमें गन्ध प्रकट होजाया करती है । किंतु वह अभिव्यक्त भी कालुष्य वृद्ध पुरुषोंकी संगतिसे शीघ्र ही इस तरहसे प्रशान्त होजाया करता है जैसे कि रंग बदलनेवाले करकेंटाका उदभूत भी वर्ण वैचित्र्य एक पत्थरके फेंकदेने पर झटिति दूर होजाता है। अध्याय ३९७
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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