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________________ बनगार ३९८ भावार्थ-इस श्लोकके पूर्वार्धमें पहले वृद्ध पुरुषों और पीछे विट पुरुषोंकी संगति करनेसे जो मनुष्योंको फल प्राप्त होता है उसको दृष्टांतद्वारा प्रकट किया है। और उत्तरार्धमें पहले विट पुरुषों और पीछे वृद्ध पुरुषोंकी संगति करनेसे जो फल प्राप्त होता है उसको उदाहरण देकर बताया है । इन दोनों उदाहरणोंसे वृद्ध और इतर पुरुषोंकी संगतिके फलका अन्तर स्पष्ट होजाता है कि मुमुक्षुओंको और अपने ब्रह्मचारी व्रतकी निर्मलता बढानेकी इच्छा रखनेवालोंको सदा वृद्ध पुरुषोंकी ही संगति करनी चाहिये। यहां एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिये । वह यह कि, इस प्रकरणमें वयकी प्रधानताके साथ साथ जिसमें ज्ञान संयमादिक गुण भी प्रकर्ष रूपसे पाये जाय उसीको वृद्ध कहा है । जैसा कि पहले भी लिखा जा चुका है। प्रायः यह बात प्रसिद्ध है कि यौवन अवस्थाके निमित्तसे विकार उत्पन्न हो ही जाते हैं । अत एव जो तरुण पुरुष हैं वे यदि अतिशयित गुणोंसे युक्त भी हों तो भी उनकी संगतिपर विश्वास न करना चाहिये । इसी बातको ग्रन्थकार प्रकाशित करते हैं: बध्याय अप्यद्यदगुणरत्नराशिरुगपि स्वस्थः कुलीनोपि ना. नव्येनाम्बुधिरिन्दुनेव वयसा संक्षोभ्यमाणः शनैः । आशाचक्रविवर्तिगर्जितजलाभोगः प्रवृत्त्यापगाः, पुण्यात्मा प्रतिलोमयन्विधुरयत्यात्माश्रयान् प्रायशः॥९॥ || ३९८ जिस प्रकार आशाचक्र-दिङ्मण्डलमें फैले हुए और गर्जना करते हुए जलके विस्तारसे सब तरफको भरा हुआ, और जिसके भीतर रत्नराशि अपनी दीप्तिको प्रकाशित करने के लिये सदा उद्यत रहा करती है, जो स्वस्थ--अतिशय प्रसन्न तथा कुलीन--पृथ्वीमें संश्लिष्ट है ऐसा समुद्र चन्द्रमाके उदयको पाकर धीरे धीरे अत्यंत
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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