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________________ अनगार तथा उन जैसा होनेका भाव जागृत हो जाय । दुःखी और पीडित प्राणियोंके अभ्युद्धारकी बुद्धिको कारुण्य कहते हैं । निर्गुण-मिथ्यादृष्टियोंके विषयमें हर्षामर्षरहित प्रवृत्तिको माध्यस्थ्य कहते हैं। ये भावनाएं किस प्रकार भाई जाती हैं उसका स्वरूप नीचे लिखे मृजब है:-" संसारमें कोई भी प्राणी दुख-दुःख और उसके कारणभूत पापसे युक्त तथा संतप्त न हो, विश्वमात्रको निश्छल-पारमार्थिक कल्याण -आत्मिक सुख प्राप्त हो" ऐसे परिणामोंको मैत्री कहते हैं। जैसा कि कहा है कि:-- शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।। समस्त जगतको कल्याणकी प्राप्ति हो, सभी प्राणी दूसरोंके हितमें निरन्तर रत रहें, संसारमेंसे दोष नष्ट होजाय, और सभी जीवोंको सर्वत्र और सर्वदा सुखकी प्राप्ति हो । तथाच मा कार्षीत् कोपि पापानि मा च भूत्कोपि दुःखितः । मुच्यतां जगदप्येषा मतिमैत्री निगद्यते ।। ___ संसारमें कोई भी जीव पाप न करे और न कोई दुःखोंसे उत्पीडित हो । समस्त जगत् निवृति प्राप्त करे । ऐसी मतिको मैत्री कहते हैं। पुरोवर्ती-दृश्यमान गुणाधिक पुरुषोमें अनुरक्त होनेवाले चक्षुओंकी तरह देशविप्रकृष्ट और कालविप्रकृष्टकेवल स्मृतिपश्वको प्राप्त हुए गुणोत्कृष्ट व्यक्तियोंके विषयमें अनुरक्त होनेवाला ही मन प्रशस्यतर समझना चाहिये। ऐसे सद्भावकोंको-इन प्रत्यक्षमें उपस्थित गुणशालियोंको देखकर मेरे नेत्र सफल होगये, और उन परोक्ष रत्नत्रयधारक पुनीत महात्माओंका स्मरण कर मेरा मन अत्यंत पवित्र होगया । इस तरहके विचार करने या होनेको १--इसी तरहके अन्यत्र भी श्लोक हैं। अध्याय ३७५
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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