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अनगार
तसे लेकर सूक्ष्मसापराय तक कषाय और योग, एवं उपशांत कषायादिकमें एक योग ही पाया जाता है । चौदहवा गुणस्थान अयोगी है; और इसीलिये वह अबंधक है।
बंधके कारणको आस्रव कहते हैं। इसके उक्त भेदोंमसे योगको छोडकर बाकी चार स्थिति और अनुभागबंधको कारण हैं। तथा योग प्रकृति और प्रदेशबंधको कारण है:
बंधका स्वरूप बताते हैं:- स बन्धो बध्यन्ते परिणतिविशेषेण विवशी,
क्रियन्ते कर्माणि प्रकृतिविदुषो येन यदि वा । स तत्कर्माम्नातो नयति पुरुषं यत्सुवशतां, प्रदेशानां यो वा स भवति मिथः श्लेष उभयोः ॥ ३८ ॥
. पूर्वबद्ध कोंके फलका अनुभव करनेवाले-फलको भोगनेवाले जीवके जिन परिणामोंसे कर्म वन्धते हैं-परतन्त्र होजाते हैं उसको बंध कहते हैं । अथवा उस कर्मको ही बंध कहते हैं जो कि जीवको अपने अधीन करलेता है। इसी तरह जीव और कर्म इन दोनोंके ही प्रदेशोंके परस्परमें प्रवेश होजानेको मी बंध क
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भावार्थ- यहांपर बंधके जो तीन लक्षण किये गये हैं सो तनि अपेक्षाओंसे हैं। पहला लक्षण करण साधनकी अपेक्षासे, और दूसरा कर्तृसाधनकी अपेक्षासे तथा तीसरा लक्षण भावसाधनकी अपेक्षासे है।
पहला लक्षण बंधके बाह्य और अंतरंग दोनो कारणोंकी प्रधानतासे किया गया है । बाह्य कारण योग