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________________ नगर ૭૨ अध्याय ४ यदि गृहका स्वामी सो रहा हो और उसके दिये बिना भी आहार ग्रहण कर लिया जायगा तो चोरीका भी दोष लगेगा । विद्वेष रखनेवाले कुटुम्बी अथवा अन्य विरोधी लोक अनेक प्रकारकी शङ्का करके शाके समय मार्ग में गमन करनेवाले साधुके ब्रह्मचर्यको नष्ट कर देते हैं या कर दे सकते हैं। यदि भोजनको दिनमें लाकर और अपने पात्र में ढककर रख लिया जाय और रात्रिमें उसको खाया जाय तो परिग्रहका भी दोष उपस्थित होगा । इस प्रकार रात्रि भोजन के निमिचसे हिंसा झूठ चोरी कुशील और परिग्रह ये पांचो ही पाप लगते हैं जिससे कि इनके विरोधी व्रत रक्षित नहीं रह सकते । इसके सिवाय रात्रिभोजीको “मेरे हिंसादिक दोष तो नहीं लगगये " अथवा " मेरी इस क्रियामें हिंसादि हुई या बची " ऐसी शंका लगी रहती है । और कदाचित् स्थाणु सर्प कण्टकादिकके द्वारा मरण होजाना भी संभव है। इस प्रकार रात्रिभोजन करनेसे मुनियोंको व्रतघात शंका और आत्मविपत्ति दोष उपस्थित होते हैं। अतएव उनको अपने व्रतोंकी र क्षाके लिये रात्रिभोजनत्यागरूप अणुव्रतका पालन अवश्य ही करना चाहिये । जो शुद्ध क्षायिक सम्यग्दृष्टि आद्य अवस्थामें होनेवाली प्राणिरक्षा प्रभृति प्रवृत्तियों के उपरितन स्थानमें किये गये उपरमकी अनुक्रांति - गुणश्रेणि संक्रमणके द्वारा अपनी साम्यावस्था - सामायिक चारित्रको पूर्ण "कर व्रतको भी संपूर्ण करदेते हैं वे ही मुमुक्षु जीवन्मुक्त अवस्थाको पाकर परम मुक्तिको भी प्राप्त कर लेते हैं । भावार्थ - जो रात्रिभोजन त्यागरूप अणुव्रत के द्वारा सुरक्षित रहते और उपर्युक्त तीन हेतुओं से जिनकी महत्ता सिद्ध है ऐसे वे नत आद्य अवस्था में प्रवृत्तिरूपसे ही पाले जाते हैं । क्यों जीवोंकी प्राणि रक्षा सत्यभाषण दत्तग्रहण ब्रह्मचर्य का पालन और योग्य परिग्रहके ग्रहण करने में ही प्रवृत्ति हुआ करती है । परंतु आगे चलकर ऊपर के स्थानों में इस प्रवृत्तिकी उपरति होजाती है और गुणश्रेणीका उपसर्पण होकर क्रमसे समस्त सावद्य योगकी निवृत्तिरूप सामायिक चारित्र पूर्ण होजाता है । किन्तु जो शुद्ध क्षायिक सम्यग्दृष्टि इस सामायिकको भी सूक्ष्मसांपराय की पराकाष्ठातक पहुंचाकर यथा ख्यात चारित्ररूप परिणत कर देते हैं वे ही योगी अयोगी होकर निर्वृति प्राप्त करते हैं। क्योंकि योग अचारि sma 暖暖膠雞雞雞雞雞維維維品雞雜藍 धर्म ० ४७२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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