SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार ४७३ अध्याय ४ का व्यापक है। जहांतक या जहां जहां योग रहेगा वहांतक या वहां वहां अचारित्र भी रहेगा ही । जिससे कि निर्वृति प्राप्त नहीं हो सकती। अयोग गुणस्थानके अन्तिम समय में ही चारित्र पूर्ण हुआ करता है। और उसीसे मोक्ष प्राप्त हो सकती है; जैसा कि कहा भी है कि: अयोगकेवली में ये तीन को अयोगकेवली कहते हैं: -१ का सर्वथा राहित्य | सीलेसिं संपत्तो णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो । कम्मरयविप्पक्को गयजोगो केवली होइ ॥ बातें प्राप्त होती हैं अथवा जिस जीवमें ये तीन बातें प्राप्त होजाती हैं उससंपूर्ण चारित्र के स्वामित्व की प्राप्ति, २ - समस्त कर्मास्रवोंका निरोध, ३ - कर्मरज और भी कहा है कि — यस्य पुण्यं च पापं च निष्फलं गलति स्वयम् । स योगी तस्य निर्वाणं न तस्य पुनरास्स्रवः ॥ जिसका पुण्य और पाप स्वयं ही निष्फल गलजाता है- विना फल दिये ही निर्जीर्ण होजाता है। उसका पुनः परावर्तन नहीं होता अथवा फिर उसके कर्मोंका आस्रव नहीं होता। इससे सिद्ध है कि साधुओको अपने आरंभिक अवस्थाके प्रवृत्तिरूप महाव्रत सुरक्षित रखकर अभ्यासक्रमसे चारित्रकी समग्रताको पहुंचा देने चाहिये | क्योकि ऐसा करनेपर ही उन्हें निर्वृति प्राप्त हो सकती है। सत्व गुणाधिक क्लिश्यमान और अविनयी इनमें क्रमसे मैत्री प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ्य भावना रखनेवालों के ये सभी व्रत अच्छी तरह दृढताको प्राप्त होजाते हैं। अत एव मुमुक्षुओंको इन चारो भावनाओंमें नियुक्त रहनेका उपदेश देते हैं: अ. ध. ६० LOVENIA SARASAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA បង្ខំ ४७३
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy