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________________ अनगार ३०९ मध्याय 8 Kanya धादि कषायों के उद्रेकसे और मन वचन कायके द्वारा किये गये कराये गये और अनुमोदित संरम्भ समारम्भ और आरम्भका छोडनेवाला ही अहिंसक हो सकता है । भावार्थ - प्राणव्यपरोपण आदिक कार्यों में प्रमादयुक्त पुरुषके प्रयत्नावेशको संरम्भ कहते हैं। और इन्द्रिय कषाय अवत आदि प्रवृत्तिकी कारण भूत अभिलाषाको अथवा साध्यरूप हिंसादिक क्रियाओंके साधनोंका अ भ्यास करनेको समारम्भ कहते हैं । तथा हिंसादिके संचित उपकरणों के कार्य में सबसे पहले प्रवृत्त होनेको आरम्भ कहते हैं । क्रोधके वश होकर कायके द्वारा इन तीनोंका स्वयं करना अथवा दूसरेसे कराना यद्वा कोई दूसरा करे तो उसकी प्रशंसा करना । इसी प्रकार मानादिकके वश होकर करने कराने आदिको गिना जाय तो छत्तीस भंग होते हैं। क्योंकि संरम्भादिक तीनो भेदोंको कृत कारित अनुमोदना इन तीनसे और क्रोध मान माया लोभ इन चारसे गुणा किया जाय तो छत्तीस भेद होते हैं । ये भेद कायकी अपेक्षासे हैं । किंतु इसी प्रकार वचन और मनकी अपेक्षा से भी होते हैं । अत एव उक्त छत्तीस भेदोंका यदि मन वचन काय इन तीनोंसे गुणा किया जाय तो जीवाधिकरणरूप आस्रव भेदोंके १०८ प्रकार होते हैं। इनमें से किसी भी भंगरूप परिणत जीव हिंसक ही है; क्योंकि वह अपने भावप्राणोंका और दूसरोंके द्रव्य तथा भाव दोनो ही प्राणोंका व्यपरोपण करता है । अत एव इन समस्त भावोंसे रहित ही जीव अहिंसक हो सकता है। जैसा कि कहा भी है: रत्तो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पजए पउगं । हिंसावि तत्थ जायदि तम्हा सो हिंसओ होइ || जिस किसी भी कार्य में जीव रागी द्वेषी अथवा मोही होकर प्रवृत्ति करता है उसीमें हिंसा होती है और ऐसा करनेवाला जीव हिंसक कहाता है । एकसौ आठ भेद गिनाये हैं; किंतु अनंतानुबन्धी आदिकी अपेक्षा विशेष भेद भी होते हैं । सो आगमके अनुसार पृथक् पृथक् समझलेने चाहिये । ऊपर सामान्य से क्रोधादिककी अपेक्षा धर्म० ३०९.
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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