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________________ SRRIERS 'बनगार भावार्थ-जिन बातोंसे धर्मकथादिकमें व्यवधान पड़ सकता है उन कारणोंके मिलनेपर यदि उन | विषयोंमें उपयुक्त योगोंका विस्मरण हो जाय और उस समय गुरु निकटवर्ती न हों तो संवेग और निर्वेदसे युक्त साधु उन विषयोंका पुनः अनुष्ठान करता है और अपने किये हुए अल्प अपराधका ' मुझसे जो यह अपराध बन गया सो मिथ्या हो, अब फिर मैं ऐसा न करूंगा।' इस तरह कहकर निराकरण करता है। इस तरहके निराकरण करनेको ही प्रतिक्रमण कहते हैं। किसी किरीका ऐसा भी कहना है कि इस निराकरण करनेमें अपने दोषोंका नाम लेकर उच्चारण भी करना चाहिये। जैसे कि मेरा अमुक दोष मिथ्या हो, मुझसे अमुम अपराध बनगया सो भी मिथ्या हो। इस तरहके अभिव्यक्त प्रतीकारको प्रतिक्रमण समझना चाहिये। किंतु इस तरहका प्रतिक्रमण करने की जिसको आचार्यने आज्ञा दी हो उसी शिष्यको करना चाहिये। प्रायश्चित्तके तीसरे भेद तदुभयका लक्षण बताते हैं: दुःस्वप्नादिकृतं दोषं निराकतु क्रियेत यत् । • आलोचनप्रतिकान्तिद्वयं तदुभयं तु तत् ॥ ४८ ॥ . दुःस्वप्न अथवा सक्लेशादिक परिणामोंसे उत्पन्न हुए दोषका निराकरण करनेके लिये जो उपर्युक्त आलोचन और प्रतिक्रमण दोनोंका करना इसको तदुभय कहते हैं । इसमें इतनी विशेषता है कि आलोचन और प्रतिक्रमण कुछ विशिष्ट हुआ करता है । अत एव जैसी गुरु आज्ञा करें तदनुसार ही शिष्यको करना चाहिये । तथ आलोचन शिष्यको ही और आलोचन कराकर प्रतिक्रमण आचार्यको ही करना चाहिये। विवेकका लक्षण बताते हैं:संसक्तेन्नादिक दोषान्निवर्तयितुमप्रभोः । अध्याय ६९४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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