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________________ अनगार ६७८ भावार्थ-जो मुमा संसार शरीर और भोगोंसे वेराग्यको प्राप्त होचुका है उसको चाहिये कि नैराश्य और इन्द्रियसंयमको सिद्ध करनेके लिये इस उत्कृष्ट वृत्तिपरिसंख्यान तपका पालन करे । यह तप अपने शरीरके रस रक्त मांसके शोषण करनेसे ही होसकता है । अत एव शक्तिके अनुसार अनेक प्रकारके जो वृत्तिपरिसंख्यानके भेद गिनाये हैं उनका पालन करके विषयोंकी आशा और इन्द्रियोंके उद्रेकका निरोध सिद्ध करना चाहिये । रसपरित्याग तपका लक्षण बताते हैं:त्यागः क्षीरदधीक्षुतैलहविषां षणां रसानां च यः, कात्स्न्येनावयवेन वा यदसनं सूपस्य शाकस्य च । आचाम्लं विकटौदनं यददनं शुद्धोदनं सिक्थव, द्रूक्षं शीतलमप्यसौ रसपरित्यागस्तपोऽनेकधा ॥ २७ ॥ दूध दही इक्षु तैल और हविष्-घृत, अथवा मधुर आम्ल लवण कटु कषाय और तिक्त इन रसोंके सत्मिना अथवा एकदेश रूपसे छोडनेको, यद्वा दाल आदि व्यंजन और शाक-इरितकाय वनस्पति आदिमेंसे किसी भी एक दोके अथवा सबके छोडदेनेको रसपरित्याग कहते हैं। केवल मांड ग्रहण करना, अथवा विकट-अतिपक्व यद्वा उष्ण बल मिला हुआ भोजन करना, केवल भात ही लेना, अथवा जिसमें द्रवरहित सूखा ग्रास तोडकर लिया जाता हो ऐसे रोटी आदिका ही भोजन करना, यद्वा स्नेहहीन रूक्ष पदार्थ ही ग्रहण करना, अथवा ठंडाकुछ देर रक्खा हुआ भोजन लेना, ये सव रसपरित्यागके ही स्वरूप हैं। अत एव यह तप अनेक प्रकारका हो अध्याय ६७८ भावार्थ-रसपरित्याग शब्दका अर्थ स्पष्ट है । अत एव इसके विशेष लक्षण करनेकी आवश्यकता नहीं १ असन- त्याग। २-इक्षु शब्दसे मतलब गुड खांड शक्कर राव आदिका है ।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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