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________________ अनगार है। किंत इतना बतादेना आवश्यक है कि रस अनेक तरहका हो सकता है और वह अनेक तरहसे छोडा जासकता है। अत एव यह तप भी अनेक प्रकारका हो सकता है। इसीलिये यहाँपर उसके कई प्रकार बतादिये गये हैं। और बाकीके भेदोंका भी संग्रह करलेनेकेलिये अपिशब्दका उल्लेख करदिया है । अत एव इस तपके पालन करने में प्रवृत्त हुए साधुओंको श्रेष्ठ और इष्टरूप रस गन्धादिसे युक्त तथा रूप बल वीर्य गृद्धि एवं दर्पके बढानेवाले, यद्वा जिनके बनाने आदिकेलिये महान् आरम्भमें प्रवृत्ति करनी पडे, ऐसे परमानपान फलभक्षण औषधादिक सभी आहारोंका परित्याग कर देना चाहिये । जो संसारसे भीरु है, सर्वज्ञकी आज्ञामें दृढ भक्ति रखता है, तथा तप और समाधिका अभिलाषी है, किन्तु सल्लेखना प्रारम्भ करने के पूर्व ही जिसने नवनीतादिक चारो महाविकृतियोंका जीवनभरकोलिये परित्याग कर दिया है, ऐसा शरीरसल्लेखनाकी इच्छा रखनेवाला व्याक्ति ही रसपरित्यागका विशेषरूपसे अभ्यास कर सकता है। इस बातको दो पद्योंमें बताते हैं।: काङ्क्षाकृन्नवनीतमक्षमदमृण्मांसं प्रसङ्गप्रदं, मद्यं क्षौद्रमसंयमार्थमुदितं यद्यच्च चत्वार्यपि । समूर्छालसवर्णजन्तुनिचितान्युच्चैर्मनोविक्रिया,हेतुत्वादपि यन्महाविकृतयस्त्याज्यान्यतो धार्मिकैः ॥ २८ ॥ इत्याज्ञां दृढमाईती दधदघादीतोऽयजत् तानि य,श्चत्वार्येव तपःसमाधिरसिकः प्रागेव जीवावधि । अभ्यस्येत्स विशेषतो रसपरित्यागं वपुः संलिखन्, स्याद् दूषीविषवद्धि तन्वपि विकृत्यङ्गं न शान्त्यै श्रितम् ॥ २९॥ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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