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________________ अनगार प्राप्त हुए आहारक शरीरके द्वारा सर्वज्ञदेवके निकट विनयपूर्वक प्राप्त होकर और उससे परमागमके अर्थका | निर्णय हो जानेपर प्रमोदसे प्रफुल्लित हुए योगिगणा ज्ञान तथा संयमकी समृद्धिसे युक्त हो जाया करते हैं। ...... "भावार्थ-भरत और ऐरावत क्षेत्रमें स्थित संयमियोंको केवलियोंके न रहनेपर जब किसी श्रुतके वि. षयमें संशय उत्पन्न होता है तब वे तत्वका निर्णय करनकोलिये महाविदेह. क्षेत्रमें केवलियोंके निकट' औदारिक शरीरके द्वारा जानेसे होनेवाला असंयम न हो इसलिये आहारक शरीरको उत्पन्न करते हैं। यह शरीर शुद्ध स्फटिकके समान स्वच्छ एक हाथकी बरावर ऊंचा, उत्तमांग-शिरसे निकलता है । यह न किसीसे रुकता और न किसीको रोकता है। केवल अन्तर्मुहूर्तमें ही संशयको दूर करदेता और फिर आकर उसी शरीरमें प्रविष्ट हो जाता है। क्योंकि इस शरीरका केवालि भगवान्से साक्षात् होते ही संशय नष्ट होजाया करता है। इस तरहकी अपूर्व ऋद्धिका प्राप्त होना भी पुण्यविशवका ही माहात्म्य है। धर्मके प्रतापसे जिनको स्व और परका-आत्मा और शरीरका भेदज्ञान होगया है ऐसे मुनीन्द्र अत्तीन्द्रिय सुखका संवेदन होजानेके कारण अहमिन्द्र पदका भी परित्याग कर देते है, यह बात दिखाते हैं। कथयतु माहिमानं को नु धर्मस्य येन, स्फुटपटितविवेकज्योतिषः शाम्तमोहाः। समरससुखसंविल्लक्षितात्यक्षसौख्या, स्तदपि पदमपोहन्लाहमिन्द्रं मुनीन्द्राः ॥.४६ ॥ जिस धर्मके माहात्म्य विवेक-शरीर और आत्माके भेदज्ञानकी ज्योति जिनकी आत्मामें स्पष्टतया प्रकाशित हो चुकी है और शांत होगया है मोह जिनका; तथा यथाख्यात चारित्ररूपी अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले अन•०९ RAPATRAPAR ध्यायय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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