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________________ अनगार किसी किसी वाक्यमें चशब्दका लुप्तनिर्देश भी रहा करता है। यथा-'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्वानि' यहांपर वायुशब्दके साथ चशब्दके न रहनेपर भी ऐसा अर्थ होता है कि 'पृथिवी जल अग्नि और वायु ये तत्त्व है। इसी प्रकार यहांपर भी सुख-शब्दके साथमें चशब्दका लुप्तनिर्देश समझना चाहिये । जिससे उपर्युक्त वाक्यका दूसरा अर्थ ऐसा भी होसकता है कि 'दुःखोंके अभाव और सुखकी इच्छा रखनेवाले आप इस ग्रंथको सुनें ।' क्योंकि दुःखोंका अभाव और सुख ये दो बातें हैं और दोनो ही की प्राणियोंको इच्छा है। . ऊपर भव्योंके जो दो विशेषण दिये हैं उनसे यह बात भी समझलेनी चाहिये कि जो दुःखरहित सुखकी इच्छा और उक्त प्रकारके बुद्धिरूप धनके धारण करनेवाले भव्य हैं वे ही इस ग्रंथके सुननेके अधिकारी हैं । क्योंकि इस ग्रंथमें जिस विषयका प्रतिपादन किया जायगा उसकी या उसके फलकी जो इच्छा ही नहीं रखते अथवा जो इस ग्रंथके समझनेकी योग्यता ही नहीं रखते वे इसके सुननेके अधिकारी किस तरह हो सकते हैं? धर्मका लक्षण ऊपर लिखा जाचुका है। वह धर्म अमृतके समान है; क्योंकि उसका उपयोग प्राणियोंको अजर और अमर बनानकोलिये कारणरूप है। इसी धर्मरूपी अमृतके स्वरूपका इस ग्रंथमें प्रतिपादन करेंगे । अतएव इस ग्रंथका नाम भी धर्मामृत है । क्योंकि विषयके नामसे. भी ग्रंथका नाम रक्खा जाता है । देखते हैं कि प्राचीन कवियोंने भी अभिधेयके नामसे तत्वार्थवृत्ति यशोधरचरित आदि शास्त्रोंके नाम रक्खे हैं। इसी प्रकार रुद्रट भट्टने भी कहा है कि " काव्यालंकारोयं ग्रंथः क्रियते यथायुक्ति--मैं युक्तिपूर्वक इस काव्यालंकार ग्रंथकी रचना करता हूं।" . इस प्रकार ग्रंथकारने प्रमाण और नामका निर्देश करते हुए ग्रंथ रचनेकी प्रतिज्ञा की, किंतु ग्रंथकी आदिमें छह बातें दिखाये बिना उसकी रचना नहीं होती यह बात प्रसिद्ध है। यथा-- अध्याय | २४ " मङ्गलनिमित्तहेतुप्रमाण.नामानि शास्त्रकर्तृश्च । व्याकृत्त्य षडपि पश्चाद्वयाचष्टां शास्त्रमाचार्यः ।।"
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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