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बनगार
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जो साधु सम्यग्दर्शनको छोडकर मिथ्यात्वमें प्रवेश कर गया है-बौद्धादिक मिथ्यामतके अभिनिवेशको धारण कर रहने लगा है उससे आचार्यद्वारा पुनः दक्षिा ग्रहण कराये जानेको श्रद्धान प्रायाश्चत्त कहते हैं । इसका दूसरा नाम उपस्थापन भी है। कोई कोई महाव्रतोंका मूलांच्छेद होजानेपर फिर से दीक्षा दिलानेको उपस्थापन कहते हैं।
इस प्रकार प्रायश्चित्तके दश भेदोंका वर्णन किया। अब यह बताते हैं कि इनका प्रयोग अपराधके अनुरूप ही होना चाहियेः
सैषा दशतयी शुद्धिर्बलकालाद्यपेक्षया ।
यथादोषं प्रयोक्तव्या चिकित्सेव शिवार्थिभिः ॥ ५ ॥ जिस प्रकार चतुर वैद्य गंगीके बल काल आदिको देखकर वात पित्त आदिक विकारके अनुसार योग्य चिकित्साका प्रयोग करता है उसी प्रकार कल्याणके अभिलाषी आचार्यों को भी, जैसा दोष हो उसके अनुसार और अपराधीके बलकालादि, सत्त्वसंहननादिको देखकर, उपर्युक्त दश प्रकारकी शुद्धिका प्रयोग करना चाहिये ।
इस प्रकार व्यवहार नयसे प्रायश्चित्तके दश भेदोंका व्याख्यान करके निश्चयनयके अनुसार भेदोंका प्र माण बताते हैं:
व्यवहारनयादित्थं प्रायश्चित्तं दशात्मकम् ।
निश्चयातदसंख्येयलोकमात्रभिदिष्यते ॥ ५९॥ व्यवहार नयसे प्रायश्चित्तके दश मेद हैं जैसा कि ऊपर वर्णन किया जाचुका है। किंतु निश्चयनयसे उसके असंख्यातलोकप्रमाण भेद होते हैं।
इस प्रकार प्रायाश्चत्तका वर्णन कर क्रमानुसार विनयतपका लक्षण कहते हैं:
अन्याय
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