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________________ बनगार धर्म ७१२ केश-शारीरिक पीडा और संक्लेश-आरौिद्र ध्यानरूप दुष्परिणामोंका नाश करनेकेलिये जो तपस्वी अथवा श्रावक व्यावृत्त-प्रवृत्त हुआ करता है उसके इस कर्म-मनोवाक्काय व्यापारको ही बयाघृत्य कहते हैं। मुमुक्षुओंको इस अंतरंग तपका पालन अवश्य ही करना चाहिये । आचार्य और उपाध्याय शब्दका अर्थ पहले बताया जा चुका है । किंतु शेष शब्दोंका अर्थ नहीं बताया वह इस प्रकार है: तपस्वी-महान् उपवासादिक तप करनेवाला, शैक्ष-प्रधानतया शिक्षामें ही रत रहनेवाला, ग्लान-रोगादिके निमित्तमे जिसका शरीर पीडित हो रहा हो, गण - स्थविर संतति, कुल-दक्षिा देनेवाले आचार्यकी स्त्रीपुरुषरूप शिष्यसंतान, संघ-चातुर्वर्ण्यरूप मुनिसमूह, साधु -जिसको दीक्षा लिये हुए चिरकाल होगया हो, मनोज्ञ-लोक सम्पत, अथवा जिसको लोक अधिक मान देते हों। वैयावृत्यका फल बताते हैं:मुत्युद्यक्तगुणानुरक्तहृदयो यां कांचिदप्यापदं. तेषां तत्पथधातिनी खवदवस्यन्योङ्गवृत्त्याथवा । योग्यद्रव्यनियोजनेन शमयत्युद्घोपदेशेन वा, मिथ्यात्वादिविषं विकर्षति स खल्वार्हन्त्यमप्यहोते ॥ ७९ ॥ जिस साधु अथवा श्रावकका मन मुक्तिको प्राप्त करनेकेलिये उद्युक्त हुए साधुओंके संयमविशेषरूप गुणपर आसक्त है और इपीलिये जो उनके ऊपर आई हुई मोक्षमार्गमें बाधा पहुंचानेवाली देवी मानुषी तेची अथवा अचेतनकृत आपत्तियोंको अपने ऊपर आई हुई समझकर शारीरिक प्रयत्न करके हटा देता है. अथवा संयमसे अविरुद्ध औषध अन्न वपतिका आदिकी योजना करके, यद्वा प्रभावशाली महान् उपदेश देकर उनके मिथ्यात्व अज्ञान अविरति प्रमाद कषाय और योगरूप विषको निकाल दूर करता बध्याय ७१२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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