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________________ बनगार ७१३ है वह वैयाप्रत्यकर्म में प्रवृत्त महात्मा इन्द्र अहमिन्द्र चक्रवर्तित्व आदि पदोंकी तो बात ही क्या सर्वोत्कृष्ट तीर्थकर पदको भी निश्चयसे अपने अधिकृत करलेता है। भावार्थ-वैयावृत्य करनेवाला मुमुक्षु उत्कृष्ट अभ्युदयों और अंतमें आर्हन्त्य पदको भी प्राप्त करलेता है। - साधर्मियोंपर आई विपत्तिकी उपेक्षा करनेवालोंके दोष प्रकट करते और इस बात का समर्थन करते हैं कि सम्पूर्ण तपस्याओंका हृदय वैयावृत्य ही है: सधर्मापदि यः शेते स शेते सर्वसंपदि। वैयावृत्त्यं हि तपसो हृदयं ब्रुवते जिनाः ॥ ८ ॥ जो अपने समान रत्नत्रय धर्मका आराधन करनेवाले हैं उनके ऊपर आई हुई आपत्तिको देखकर भी जो सो जाता है-उस आपत्तिके दूर करनेकी चेष्टा नहीं करता वह समस्त संपत्तियोंके विषय में भी | सो जाता है-उसका कोई भी गुरुपार्थ सफल नहीं हो सकता । क्योंकि अर्हत देवने अन्तरङ्ग और बाह्य सम्पूर्ण तपस्याओंका हृदय वैयावृत्य ही बताया है। . और भी वैयावृत्यका फल बताते हैं:समाध्याधानसानाथ्ये तथा निर्विचिकित्सता । सधर्भवत्सलवादि वैयावृत्येन साध्यते ॥ ८१॥ ... वैयावृत्यके द्वारा एकाग्रचिन्ताके निरोधरूप ध्यान और सनाथताकी प्राप्ति होती है, तथा ग्लानिका अमाव होता है, और साधर्मियों में गोवत्सके समान परस्पर प्रीति उत्पन्न होती है। इसके सिवाय धर्म और आम्नायकी रक्षा तथा प्रभावना आदि और भी अनेक गुण इस वैयावृत्यके द्वारा सिद्ध हुआ करते हैं। अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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