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________________ इसप्रकार यावृत्यक प्रकरणको समाप्त करके क्रमानुसार मुमुक्षुओंकेलिये स्वाध्यायके विषयनित्यही अभ्यास करनेका विधान करते हुए स्वाध्याय इस शब्दका निर्वचनसिद्ध वर्थ बताते हैं: निरं स्वाध्यायमभ्यस्येत्कर्मनिर्मूलनोद्यतः। स हि खस्मै हितोऽध्यायः सम्यग्वाध्ययनं श्रुतेः ।। ८२ ॥ स्व-आत्माके लिये हितकर-उपकारी-संवर और निजराके कारणभूत श्रुतके अध्ययनको अथवा । सु-समीचीन केवलज्ञानोत्पत्तिपर्यन्त श्रतके अध्ययन - पाठको स्वाध्याय कहते हैं। अत एव ज्ञानावरमादिक कर्मों तथा मनोवाक्कायक्रियाओं को निर्मूल करनेकेलिये उद्युक्त हुए मुमुक्षुओंको इस स्वाध्यायका चित्य ही अभ्यास करना चाहिये। सम्यक् शब्दका अर्थ बताने हुए स्वाध्यायके पहले भेद-वाचना का स्वरूप बताते हैं: शब्दार्थशुद्धता द्रुतविलम्बितायूनता च सम्यक्त्वम् । शुद्धग्रन्थार्थोभयदानं पात्रेस्य वाचना भेदः ॥ ८३ ॥ शब्द और अर्थकी शुद्धता, तथा विना विचारे ही जल्दीसे न बोलना, वे मौके विश्राम लेकर उच्चारण न करना किन्तु बोलने या लिखने आदिके समय योग्य स्थानपर ही विश्राम लेना, और किसी भी अक्षर मात्रा या पद आदिको छोड न देना, इत्यादि सब स्वाध्यायकी समीचीनता कहलाती है। इस तरहकी समीचीनता या शुद्धतासे युक्त अथवा निरवद्य-मोक्षमार्गकेलिये उपयोगी ग्रन्थ अर्थ अथवा दोनाहीके विनयादि गुणोंसे युक्त पात्रकेलिये देनेको वाचना कहते हैं। स्वाध्यायके दूसरे मेद प्रच्छनाका स्वरूप बताते हैं:प्रच्छनं संशयोच्छित्त्यै निश्चितद्रढनाय वा। प्रश्नोऽधीतिप्रवृत्त्यर्थत्वादधीतिरसावपि ॥८४॥.. अध्याय ७१४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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