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अनगार
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अध्याय
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सब जीव किस प्रकार दुःखसे मुक्त हों " इस तरहके परिणामविशेष उत्पन्न हुआ करते हैं । समस्त पदा थके यथार्थ स्वरूपकी प्रतिपत्तिको आस्तिक्य कहते हैं । जिसके होनेसे जो हेय परद्रव्य हैं उनका और जो उपादेय निज शुद्धात्मस्वरूप है उसका अर्थात्, सभी स्वपर द्रव्योंका उसी तरहसे, जैसा कि उनका स्वरूप है, निश्चय होता है।
स्वगत और परगत सम्यक्त्वके सद्भावका निश्चय किससे होता है सो बताते हैं:--
तैः स्वसंविदितैः सूक्ष्मलोभान्ताः स्वां दृशं विदुः । प्रमत्तान्तान्यगां तज्जवाक्चेष्टानुमितैः पुनः ॥ ५३ ॥
स्वयंके संवेदनके द्वारा भले प्रकार निर्णीत उपर्युक्त प्रशमादिकोंके द्वारा असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसांपराय दशम गुणस्थान पर्यंत सात गुणस्थानवाले जीव स्वगत सम्यग्दर्शनके सद्भावको जान सकते हैं। और प्रशमादिकोंके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले वचन तथा चेष्टा- काय व्यापारको देखकर जिनका अनुमान करलिया जाता है ऐसे प्रशम संवेग अनुकंपा और आस्तिक्यके द्वारा छठे गुणस्थान तकके परजीवोंके सम्यग्दर्शनको भी जान सकते हैं।
भावार्थ - स्वगत सम्यग्दर्शनके निमिचसे जिन प्रशमादि भावोंकी उत्पत्ति होती है उनका निर्णय स्वयं होजाता है । और इसीलिये उन स्वयं निणति प्रशम संवेग अनुकंपा और आस्तिक्यके द्वारा उस सम्यग्दर्शनका भी ज्ञान हो सकता है। इसी तरह अपने प्रशमादिकसे अविनाभावी उत्पन्न होनेवाले वचन एवं कायव्यापारका भी निर्णय होजाता है। उसी तरहका वचन तथा कायव्यापार आदि दूसरोंका देखकर उनके अविनाभावी प्रशमादिकका अनुमान करलिया जाता है; और उन अनुमित प्रशमादिकोंके द्वारा परके सम्यग्दर्शनका भी ज्ञान हो सकता है। किंतु इस तरहसे चौथे पांचवें और छट्ठे गुणस्थान तकके ही परगत सम्यग्दर्शनका ज्ञान हो सकता है।
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