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________________ धर्म अनगार १७३ सत्रोवृत्ते तमसि हतदृग् जन्तुराप्तेषु भयो, भूयोऽभ्याजत्स्वपि सजति ही स्वैरमुन्मार्ग एव ॥१०॥ जिसके द्वारा कर्तव्याकर्तव्यका पृथक्करण किया जा सकता है ऐसा विवेकरूपी सूर्य जो कि समस्त संसारको प्रकाशित करनेकेलिये प्रदीपके समान है, जब अहंकाररूपी अस्ताचलके द्वारा ग्रस्त हो जाता है और राग द्वेष प्रभृति राक्षसगणोंके साथ साथ अतिशयरूपमें बढरही और फैल रहीं हैं चोरी व्यभिचार आदि पापकर्मोकी प्रवृत्तियां जिसमें, ऐसा मोहरूपी अन्धकार अच्छी तरहसे-उच्छृखलताके साथ साथ निविडरूपमें सर्वत्र व्याप्त होजाता है उस समयमें इस प्राणीकी दृष्टि नष्ट होजाती है, और कष्टकी बात है कि वह अमीष्ट मार्गको छोडकर गुरु आदि आप्तजनके द्वारा पुनः पुनः रोकेजानेपर भी स्वच्छन्दतया उन्मार्ग-पुरुषार्थविरोधी मार्गमें ही आसक्त होता है। अहंकारजनित पापकर्म के उदयसे होनेवाले अत्यंत उग्र अपमान दुःखका निरूपण करते हैं जगद्वैचित्र्यस्मिन्विलसति विधौ काममनिशं, स्वतन्त्रो न कास्मीत्यभिनिविशतेऽहंकृतितमः। कुधीर्येनादत्ते किमपि तदधं यद्रसवशा,चिरं भुङ्क्ते नीचैर्गतिजमपमानज्वरभरम् ॥ ११॥ अध्याय ५७३ “स्थावरजंगमस्वरूप संसारकी विचित्रता प्रसिद्ध है । इसमें निरंतर और यथेष्टरूपसे भाग्यके स्फुरायमान होनेपर ऐसा कौनसा विषय है कि जिसको मैं प्राप्त नहीं कर सकता । संसारके सभी विषयोंको प्राप्त करने में मैं स्वतन्त्र हूं।" ऐसा समझनवाला यह जडबुद्धि जीव अहंकाररूपी अंधकारको उच्छृखल बनादेता है और उससे उस अनिवचनीय पापकर्मका संचय करता है कि जिसका उदय होनेपर नीचगतिसम्बन्धी अपमानज्वरको चिरकालतक
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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