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________________ इह जाहिं बाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं । सेवंतावि व उभये वाओ चात्तरि सण्णाओ॥ आगममें कहा है कि-जिनसे बाधित होकर अथवा जिमका सेवन करनेवाले मनुष्य दारुण दुःख को प्राप्त होते हैं वे संज्ञाएं चार हैं।.. अनगार __ और भी कहा परितप्यते विषीदति शोचति विलपति च खिद्यते कामी। .....! नक्तदिवं न निद्रा लभते ध्यायति च विमनस्कः ।। कामी पुरुष विमनस्क होकर ; क्योंकि उसका मन विक्षिप्त होजाता है अत एव संतप्त होता विषण्ण होता शोच करता बिलाप करता और खिन्न होता है। अधिक क्या निद्रा भी नहीं लेता और . दिन रात उसका ध्यान करता रहता है। लोकमें भी प्रसिद्ध है कि:- .. उत्कण्ठा परितापो रणरणकं जागरस्तनोस्तनुता। . . फलमिदमहो मयाप्तं सुखाय मृगलोचनां दृष्टा ।।। मुखका अनुभव करनेकेलिये मैंने मृगनयनीको देखा तो अहो उसके, फलरूपमें मुझको ये वस्तुएं प्राप्त -उत्कण्ठा परिताप रणरणक-उद्वेग जागरण और शरीरकी कृपता। अध्याय १-आहार भय मैथुन और परिग्रह ।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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