SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि दाता अपनोलये पकते हुए भात दाल आदि धान्यमें अथवा उसकेलिये पकते हुए जल-अधेनमें स. नियोंको दान देनेके अभिप्रायसे-" आज तो हम साधु महाराजको आहार देंगे" इस संकल्पसे वावल दाल आदि डाले तो उसकी इस क्रियाको साधिक दोष कहते हैं । अथवा भोजनके पकने-तयार होनेतक पूजा धर्म आदि विषयोंके प्र. नादिके छलसे साधुओंके रोक रखनेको भी साधिक दोष कहते हैं। इस दोषका दूसरा नाम अध्यधिरोध भी है। दो प्रकारके पूतिदोषको बताते हैं। | धर्म अनगार ५२७ प्रति प्रासु यदप्रासुमिश्रं योज्यमिदंकृतम् । नेदं वा यावदार्येभ्यो नादायीति च कल्पितम् ॥ ९॥ जो द्रव्य स्वरूपसे प्रासुक है. उसमें यदि अप्रासुक वस्तु भी मिला दी जाय तो उसको पूति दोषसे दूषित समझना चाहिये। इसको पूतिदोषका अप्रासुकमिश्रण नामका पहला भेद समझना चाहिये । इसी प्रकार किसी वस्तुकी अपेक्षासे ऐमी कल्पना करना कि " इस पात्रद्वारा अथवा इसमें बनाये हुए अमुक पदार्थका यद्वा इस भोजनका दान साधुओंको न होजाय तबतक इसका उपयोग किसीको भी न करना चाहिये" इसे प्रतिदोष कहते हैं । यह पूनिदोषका पूतिकर्मकल्पना नामका दूसरा भेद है । इसका उदाहरण इस प्रकार समझना कि-" हमारे यहांपर यह नवीन चूल जो बनी है उसपर बने हुए भोजनका, अथवा यह नवीन पात्र जो आया है उसका साधुमहाराजके दानमें जब तक उपयोग न करलिया जायगा तबतक दूसरे किसीको भी इसका उपयोग न करना चाहिये," दाताकी ऐमी कल्प. नाको पूतिकर्मकल्पना नामका दोष कहते हैं । इसके चक्की उखली चूल दर्वी और पात्रकी अपेक्षासे पांच भेद होते हैं। यथा:-- मिश्रमप्रासुना प्रासु द्रव्यं पूतिकमिष्यते । - चुल्लिकोदूखलं दर्वी पात्रगन्धौ च पञ्चधा । इसी विषयमें और भी कहा है कि: अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy