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________________ मनगार देखने के लिये नेत्रहीन- अन्धा सरीखा बननया है--उनका निरीक्षण करनेके लिये कभी भी अपनी दृष्टिका तू निक्षेप नहीं करता। तथा पहले जो तेने उन रमणीय रमणियोंके साथ रमण किया था उसका अब स्मरण करनेके लिये यदि तू ऐसा बनगया है मानो असंज्ञी-अमनस्क है-कभी उसका स्मरण नहीं करता और वृष्य दुग्धादिक शुक्रके बढानेवाले पदार्थों और अभीष्ट मधुरादिक रसोंका आस्वाद लेनेके लिये अभ्यासतः सेवन करनेके लिये यदि तू अरसज्ञ या ऐसा बन गया है मानों तेरे जिह्वा ही नहीं है। तथा अपने शरीरका संस्कार करनेके लिये उसको मनोहर अतिशयित और कान्तियुक्त बनानेके लिये यदि तू बिल्कुल ही पराङ्मुख होगया है मानों बृक्षसरीखा बनगया है; तो कहना चाहिये कि तू चौथे महाव्रत-ब्रह्मचर्यकी प्रौढ महिमाको प्राप्त कर चुका । पूर्वरतानुस्मरण और वृष्येष्ट रसका त्याग करने केलिये पहले भी लिखा जाचुका है । किंतु यहांपर दूसरी बार फिर वर्णन करनेका प्रयोजन यह है कि ब्रह्मचर्य व्रत अत्यंत दुःसाध्य है अतएव उसका पालन करनेके लिये सावधानी रखकर अधिक प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि समस्त व्रतोंमें ब्रह्मचर्य व्रत ही क्लिष्ट और महान माना है । जैसा कि कहा भी है किः । अक्खाण रसणी कम्माण मोहणी तह वाण बभं च । गुत्तीण य मणगुत्ती चउरो दुक्खेण सिझति ।। इन्द्रियोंमें रसना, कोंमें मोहनीय, व्रतोंमें ब्रह्मचर्य, आर गुप्तियोंमें मनोगुप्ति, ये चारो ही भाव बडी ही कठिनतासे सिद्ध हुआ करते हैं। अध्याय वृष्य द्रव्पका सेवन करनेसे जो तृती होती है उसका प्रभाव मनुष्यपर कैसा पडता है या उसका फल कैसा मिलता है सो बताते हैं: को न वाजीकृतां दृप्तः कंतुं कंदलयेद्यतः ।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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