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________________ . . अनगार वाले हैं और स्वभावसे ही चंचल होते हुए भी अपना प्रयोजन सिद्ध करनेकेलिये दूर दूर तक फैले हुए हैं। तथा व्याख्यानांदिके समय गर्जते भी खूब हैं पर वपते बिलकुल भी नहीं हैं। श्रोताओंको-भव्योंको अभ्युदय या मोक्षुके. मार्गका ज्ञान बिलकुल भी नहीं करा सकते । हां, ऐसे उपदेशक अवश्य ही दुष्प्राप्य हैं, जो कि विनीत किंतु पूर्वाचायोंसे व्युत्पादित सदाचारके प्रकर्षको प्राप्त हुए विनेयोंको अपने उपदेशरूपी जलसे इस तरह आप्लुत करदेते हैं कि जिससे वर्षाकालके समान पूर्वाचायोंके प्रतापसे उत्पन्न हुआ उनका शास्त्रके रहस्यविशेषका ज्ञानरूपी नवीन धान्य अपूर्व व्युत्पत्तिसे विशिष्ट और समृद्ध हो जाता है। ..., यह बात पहले कहचुके हैं कि “ मंगल निमित्त आदि छह बातोंको बताकर आचार्योंको शास्त्रका व्याख्यान करना चाहिये ।" यहांणर आचार्यका नाम मात्र चताया गया है। किंतु यह नहीं बताया गया कि शास्त्रका वह व्याख्याता आचार्य कैसा होना चाहिये । अतएव ग्रंथकार यहांपर व्यवहारप्रधान उपदेशके का आचार्यका लक्षण करते हैं।- -.... . ........ प्रोद्यन्निवेदपुष्यद्रतचरणरसः सम्यगाम्नायधर्ता, धीरो लोकस्थितिज्ञः स्वपरमतविदा धाग्मिनां चोपजीव्यः । सन्मूर्तिस्तीर्थतत्त्वप्रणयननिपुणः प्राणदाज्ञोभिगम्यो, निग्रन्थाचार्यवर्यः परहितनिरतः सत्पथं शास्तु भव्यान् ॥ ९॥ संसारको बढानेवाले मिथ्यात्वादिक भावोंको ग्रंथ-परिग्रह कहते हैं। यह परिग्रह जिन्होंने सर्वथा छोडदिया है उन यतियोंको निग्रंथ कहते हैं। तथा जो पांच प्रकारके आचारका स्वयं पालन करते और शिष्योंसे कराते हैं उनको आचार्य कहते हैं । तथा १ आचारके पांच भेद ये हैं-१ दर्शनाचार २ ज्ञानाचार ३ चारित्राचार ४ तपआचार ५ वीर्याचार । अध्याग
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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