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________________ बनगार ६०१ अध्याय माशुद्धिको मनःशुद्धि कहते हैं। सम्पूर्ण शुद्धियों में प्रधान इसी शुद्धिको माना है । क्योंकि चारित्रका प्रकाश इससे हो सकता है । जैसा कि कहा भी है कि: सर्वासामेव शुद्धीनां भावशुद्धिः प्रशस्यते । अन्यथा लिङ्गयते पत्यमन्यथालिङ्ग यते पतिः || सबमें प्रशस्त भावशुद्धि ही गिनी गई है। क्योंकि देखते हैं कि माता जो संतानका आलिङ्गन करती है. उसमें और पतिका जो आलिङ्गन करती है उसमें एकसी क्रिवाके रहते हुए भी परिणामोंका बड़ा भारी अन्तर है । शरीर की ऐसी चेटाको कायशुद्धि करते हैं जो कि वस्त्र भूषण और संस्कारादिने सर्वथा रहित हो तथा बालकके समान यथाजात रूपसे युक्त किंतु जिसमें किसी भी प्रकार से अङ्गका विकार नहीं पाया जाता, तथा जिसके देखते ही लोगों को ऐसा जान पडे मानों यह मूर्तिनान् प्रशम ही है। ऐसी कायशुद्धि ही अमयपदका कारण हो सकती है। क्योंकि इसके होनेपर अपने को दूसरेसे ओर दूसरे को अपनेसे किसी भी तरह भय नहीं हो सकता । यद्यपि इन आठ शुद्धियों का वर्णन समिति आदि के प्रकरण में आजाता है फिर भी उसका यहांपर पृथक् वर्णन जो किया है उसका अभिप्राय यही है कि बाल या अशक्त भी मुनि अत्यंत दुष्कर भी संयमका पालन करनेमें सदा प्रयत्नशील बने रहें । इस प्रकार अपहृत संयमका वर्णन करके क्रमप्राप्त उपेक्षा संयमका अथवा उसके धारण करनेवालेका स्वरूप बताते हैं:-- तेमी मत्सुहृदः पुराणपुरुषा मत्कर्म क्लृप्तोदयैः, स्वः स्वैः कर्मभिरी रेतास्तनुमिमां मन्नेतृकां मुद्धिया । ६०३
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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