SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 666
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ অসহ RETTENTINE - अदर्शन परीषहके विजयको दिखाते हैं:महोपवासादिजुषां मृषोद्याः, प्राक् प्रातिहार्यातिशया न होक्षे । किंचित्तथाचार्यपि तद् वृथैषा, निष्ठेत्यसन् सद्गदर्शनासट् ॥ ११ ॥ - मैं महोपवासादिको करते हुए भी अपनेमें प्रातिहार्य में ज्ञानातिशयादिकोंका उत्पन्न होना नहीं दे. खता हूं। इससे मालुम होता है, पूर्वकालमें पक्ष मास आदिक महोपवासादिके करनेवाले साधुओंके प्रातिहार्य या ज्ञानातिशयादिकी उत्पत्ति होना जो बताया जाता है वह सब झूठी बात है। अन्यथा मुझमें भी वे अतिशय आज जागृत क्यों नहीं होते । अत एव इस तपस्याका अनुष्ठान करना भी व्यर्थ ही है । इस तरहके भाव जिसके हृदयमें उद्धृत नहीं हुआ करते उस दर्शनविशुद्धियुक्त साधुको ही अदर्शनपरिषहका विजयी समझना चाहिये। इस प्रकार बाईस परीषहोंके विजयका स्वरूप और साधन बताया गया । ये सभी परीपह कर्मोदयके निमित्तसे प्राप्त हुआ करती हैं। ज्ञानावरणके उदयसे प्रज्ञा और अज्ञान, दर्शनमोहके उदयसे अदर्शन, अन्तरायके उदयमे अलाभ, मानके उदय से नाग्न्य निशद्या आक्रोश याचना और सत्कारपुरस्कार, अरतिके उदयसे अति. बेदके उदयसे स्त्री, और वेदनीयके उदयसे क्षुधा पिपासा शीत उष्ण दंशमशक चर्या शय्या वध रोग तणस्पर्श तथा मल परीषह होती हैं। इन बाईस परीषदों से एक समयमें एक जीवके एकसे लेकर उन्नीस तक हो सकती हैं। क्योंकि चर्या शय्या और निशद्या इन तीन परस्पर विरोधी परीषहोंमेंसे एक कालमें कोईसी एक ही हो सकती है। इसी प्रकार शीत उष्णमेसे भी एक काल में एक ही हो सकती है । इस प्रकार तीनके कम होजानसे बाकी उन्नीस तक हो सकती अध्याय POST
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy