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________________ अनगार है। और उसके लिये वह ऐसे पदार्थोकी धनियोंसे याचना करने के लिये मरणतुल्य दीनताको धारण कर उस लज्जाको भी छोड दे सकता या छोडदेता ही है जो कि देवीके समान है। जैसा कि कहा भी है कि-- लज्जां गुणौघजननी जननीमिवान्या,मत्यन्तशुद्धहदयामनुवर्तमानाः। तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति, . सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ - जो तेजस्वी अत्यंत शुद्ध हृदयवाली दूसरी माताके समान गुणोंकी खानि लज्जाका अनुसरण करनेवाले हैं और सत्यस्थितिके व्यसनी हैं वे अपने प्राणोंको सुखपूर्वक छोड़ सकते हैं किंतु प्रतिज्ञाको नहीं । इससे मालुम होता है कि लज्जा प्रभावशालिनी देवताके ही सदृश है। जिसको कि लम्पटी पुरुष दीन याचक बनकर छोडदिया करते हैं। अतएव जो साधु शरीरमें स्नेह रखते हैं वे क्रमसे उसके निमित्तसे लम्पटी दीन निर्लज्ज और धनियोंके सामने याचक बनकर अपनी वाणीका ही नहीं किन्तु अपना भी महत्व खो देते हैं । जो धीर और महाप्रभावशाली तथा धर्मके विषयमें निरंतर वीर रससे पूर्ण रहनेवाले हैं वे अपने उस धार्मिक आचरणमें सहायभूत शरीरकी रक्षाके लिये जिनोपदेशके अनुसार भिक्षा गोचरी चर्याके आचरणको स्वीकार करके भी यदि उसमें प्रमाद करते हैं तो वह ठीक नहीं है। इस प्रकार साघुओंको भिक्षामे प्रमाद करनेका निषेध करते हैं: प्राची माटुंमिवापराधरचनां दृष्ट्वा स्वकार्ये वपुः, सध्रीचीनमदोऽनुरोद्धुमधुना भिक्षां जिनोपक्रमम् । आश्रौषीर्यदि धर्मवीररसिकः साधो नियोगाद्गुरो,स्तत्तच्छिद्रचरौ न किं विनयसे रागापरागग्रहौ ॥ १४३ ॥ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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