SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 471
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार ४५९ अध्याय 8 एव शरीरका पालन भी करना चाहिये किन्तु वह इस प्रकारसे न करना चाहिये जिससे कि तप और संयम के आराधनमें विशेष आजाय । जो साधु नैर्ग्रन्थ्य व्रतको प्राप्त कर चुका है उसका भी माहात्म्य शरीर में स्नेह करनेके कारण नष्ट हो जाया करता है। ऐसी शिक्षा देते हैं: नैर्ग्रन्थ्यव्रतमास्थितोपि वपुषि विद्यन्नसह्यव्यथा, - भीरुर्जीवितविचलालसतया पञ्चत्वचेक्रीयितम् । याच दैन्यमुपेत्य विश्वमहितां न्यक्कृत्य देवीं त्रपां निर्मानो घनिनिष्ण्य संघटनयाऽस्पृश्यां विधत्ते गिरम् ॥ १४२ ॥ देव गुरु और धर्मा पुरुषोंकी साक्षीसे नैर्ग्रन्थ्य- समस्त परिग्रहके परित्यागरूप व्रतको प्राप्त करके भी जो साधु शरीर के विषय में स्नेह - राग रखता है वह अवश्य ही असा - जिनका सहन नहीं किया जा सकता ऐसे परीषद और दुःखोंसे सदा भीत रहा करता है। और इसी लिये वह जीवन और धनमें तीव्र लालसा रखकर - अत्यंत लोलुपी होकर मरणके तुल्य-मानों मृत्युका मित्र या भाई ही हो ऐसे प्रार्थनाजनित दैन्यको प्राप्त कर- दीन बनकर और अतएव अत्यंत प्रभावसे युक्त देवीके समान लज्जाका अभिभव करके अपनी जगत्पूज्य भी वाणीको अन्त्यजोंके समान दयादाक्षिण्यादिसे रहित धनियोंसे संपर्क कराकर अस्पृश्य- अनादेय बनादेता है। क्या ऐसे भिक्षुका कभी भी महत्त्व स्थिर रह सकता है ? कभी नहीं । भावार्थ - केवल शरीरमें स्नेह करनेके कारण निर्ग्रथ भी साधुओंका महत्त्व सर्वथा क्षीण हो जाया करता है। क्योंकि ऐसा साधु तपस्वियोंके कर्तव्य परीषहोपसर्गादिकके ऊपर विजय प्राप्त करनेका पालन नहीं कर सकता किंतु वह सदा शरीरके पालन पोषण में ही दत्तचित्त और उनके साधनों में लालसायुक्त रह सकता ४५९
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy