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________________ बनगार २७ मावार्थ-यहाँपर खद्रव्य का जो दृष्टान्त दिया है उसको अन्वयमुख और व्यतिरेकमुख दोनों ही तरह से घटित करना चाहिये । क्योंकि स्वद्रव्यमें भी अभिनिवेश आरब्धयोगीके ही हो सकता है नकि निष्पनयोगीके । नि. पन्नयोगी तो सम्पूर्ण संकल्पविकल्पोंसे रहित अवस्था का अनुभव किया करता है । यथाः मुक्त इत्यपि न कार्यमञ्जसा कर्मजालकलितोहमित्यपि । निर्विकल्पपदवीमुपाश्रयन् संयमी हि लमते परं पदम् ।। अपि च,- यद्यदेव मनसि स्थितं भवेत्तत्तदेव सहसा परित्यजेत् । इत्युपाधिपरिहारपूर्णता सा यदा भवति तत्पदं तदा॥ तथा,- अन्तरङ्गबहिरङ्गयोगतः कार्यसिद्धिरखिले ति योगिना। आशितव्यमनिशं प्रयत्नतः स्वं परं सदृशमेव पश्यता ॥ इसलिये अन्वयदृष्टान्तके समय तो ऐसा अर्थ करना चाहिये कि स्वद्रव्यमें मुझे जैसा कुछ अमिनिवेश है वैसा परद्रव्यम किम तरह हो सकता है ? नहीं हो सकता । तथा व्यतिरेक दृष्टान्त के समय ऐसा अर्थ करना चाहिये कि मुझे स्वद्रव्यमें भी क्या अभिनिवेश हैं ? कुछ भी नहीं ! इसी प्रकार परद्रव्यमें भी क्या अभिनिवेश हो सकता है ? कुछ भी नहीं। क्षेत्र सामायिकमें किस प्रकारकी भावना होती है सो बताते हैं : राजधानीति न प्रीये नारण्यनीति चोदिजे । देशो हि रम्योऽरम्यो वा नात्मारामस्य कोपि मे ॥ २४ ॥ यह राजधानी है-इसमें राजा महाराजा आदि बडे आदमी रहते हैं, इसलिये मनोज्ञस्थान है। ऐसा समझकर मुझे इसमें कुछ राग-प्रेम नहीं होता। और न यह एक महान अरण्य -निर्जन वन है, इसलिये मुझे इसमें किसी प्रकार उद्वेग ही होता है। क्योंकि वास्तव में मेरा रमणीय स्थान चित्स्वरूप ही है। अत एव मेरोलये कोई भी बाह्य स्थान मनोज्ञ या अमनोज्ञ नहीं हो सकता। अध्याय ७४७
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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