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बनगार
अर्थात- सामायिकके आदिमें और अंतमें दो नति त्रियोगसम्बन्धी तीन २ आवर्त और प्रत्येक दिशामें तीन २ भ्रमणके पीछे एक एक प्रणाम हुआ करता है । भावार्थ प्रत्येक भ्रमणके करते समय चारो दिशाओंमें एक २ प्रणाम होता है । अतएव तीन भ्रमणके मिलाकर बारह प्रणाम हो जाते हैं।
ऊपर आवर्तका अर्थ योगत्रयका बदलना लिखा है, किंतु वृद्ध व्यवहारमें इसका अर्थ हाथोंका घुमाना होता है । अतएव प्राचीन व्यवहारके अनुगेघसे इस प्रकारके आवर्तका भी उपदेश देते हैं :
त्रिः संपुटीकृतौ हस्तौ भ्रमयित्वा पठेत् पुनः।।
साम्यं पठित्वा भ्रमयेत्तौ स्तवेप्येतदाचरेत् ॥ ८९॥ आवश्यकों का पालन करनेवाले तपस्त्रियों को सामायिक पाठका उच्चारण करने के पहले दोनों हाथों को मुकुलित बनाकर तीन वार घुमाना चाहिये । घुमाकर सामायिकके " णमो अरहताणं" इत्यादि पाठका उच्चारण करना चाहिये । पाठ पूर्ण होनेपर फिर उसी तरह मुकुलित हाथोंको तीनवार घुमाना चाहिये। यही विधि स्तव दण्डकक विषयमें भी समझनी चाहिये।
भावार्थ-दोनों हाथोंका संपूट बनाकर तीन वार घुमाना और फिर चतुर्विशति स्तवदण्डकका पाठ करना । पाठ के अनंतर फिर उसी तरह दोनों हायोंके संपुटको तीन वार घुमाना चाहिये । व्युत्सर्ग तपका वर्णन करते समय चारित्र सारमें भी कहा है कि:
इन आवश्यक क्रियाओंको करनेवाला साधु शक्तिको न छिपाकर न शक्तिसे अधिक किंतु शक्तिके अनुरूप खडे होकर अथवा खडे होनेकी शक्ति न हो तो पर्यकासनसे मन वचन कायको शुद्ध करके दोनों हाथोंका संपुट बनाकर क्रिया विज्ञापनापूर्वक सामायिक दण्डकका उच्चारण करे। इस तरह तीन आवर्त और एक शिरोनति होती है। इसी तरह सामायिकदण्डकके अंतमें भी करना, तथा यथोक्त कालतक जिनभगवान्के गुणोंका स्मरण करते हुए कायव्युत्सगको करके दूसरे दण्डककी आदिमें तथा समाप्ति में भी इसी प्रकार करना चाहिये । इस तरह कुल मिलाकर एक कायोत्सर्गके बारह आवर्त और चार शिरोनति होजाती हैं।
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