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________________ अनगार विदितार्थशक्तिचरितं कायेन्द्रियपापशोषकं परमम् । जातिजरामरणहरं सुनाकमोक्षाश्रयं सुतपः ।। इस समीचीन बाह्य तपका प्रयोजन शक्ति और चरित सर्वत्र प्रसिद्ध है । क्योंकि यह शरीर इन्द्रिय और पापका शोष करने वाला तथा जन्म जरा और मरणका हरण करने वाला, एवंच मोक्षका आश्रय है। प्रकृतमें ध्यान शब्दसे धर्म्य और शुक्लरूप प्रशस्त ध्यानका तथा संयम शब्दसे पूर्वोक्त उसके उपेक्षा और अपहृतरूप दो भेदोंका ग्रहण करना चाहिये । इनके सिवाय अनशनादिक प्रसादसे तापत्रयका सहन सुखोंमें अनासक्ति और ब्रह्मोद्योत-ब्रह्मचर्यमें निर्मलताका उत्पन्न होना आदि और भी अनेक गुण उद्भूत हुआ करते हैं। बाह्य तप परम्परासे मनके जीतने में भी कारण है इस बातको स्पष्ट करते हैं: बास्तिपोभिः कायस्य कर्शनादक्षमर्दने । छिन्नवाहो भट इव विक्रामति कियन्मनः॥८॥ इन्द्रियां मनरूपी सुभटके वाहनके समान हैं। और अनशनादिक बाह्य तोके द्वारा शरीरका कर्शन हो जानेसे उसका मर्दन हो जाता है। अतएव इन्द्रियोंका दलन हो जानेपर दुर्जय भी मन अपना पराक्रम किस तरह प्रकट कर सकता है ? कैसा भी वीर पुरुष क्यों न हो, प्रतियोद्धाके द्वारा अपने वाहन-घोडेके मारे जानेपर अवश्य ही निर्बल हो जायगा। .. अनशनादिका विशेष स्वरूप बतानेके पहले इस बातकी शिक्षा देते हैं कि तपस्वियों को भोजन इस प्रकारसे करना चाहिये कि जिससे प्रमाद प्रकट न हो सकेः शरीरमाद्यं किल धर्मसाधनं, तदस्य यस्येत् स्थितयेऽशनादिना । अध्याय ६६३
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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