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________________ अनगार व्युत्सर्ग तपका फल बताते हैं:-- नैःसङ्गयं जीविताशान्तो निर्भयं दोषविच्छि दा। स्यायुत्साच्छिवोपायभावनापरतादि च ॥ १०२ ॥ .. व्युत्सर्ग तपके प्रसादसे सम्पूर्ण परिग्रहका निग्रह होजानेसे निर्ग्रन्थताकी सिद्धि, और जीवनकी आशाका विनाश तथा भयका अभाव होता है, रागादिक दोषोंका उच्छेद और मोक्षमार्ग--रत्नत्रयके अभ्यास करने में तत्परता होती है । अधिक क्या सभी लौकिक और पारलौकिक अभ्युदयों तथा अन्तमें मोक्षकी भी इससे सिद्धि हुआ करती है। अन्तिम अन्तरङ्ग तप-ध्यानका वर्णन करनेकी इच्छासे उसके मिथ्या और समीचीन भेदोंका वर्णन करते हुए इस बातका उपदेश देते हैं कि प्रशस्त ध्यान के विना सम्पूर्ण क्रियाओंका पालन करते रहने पर भी मोक्षकी प्राति नहीं हो सकती:-- आर्त रौद्रमिति द्वयं कुगतिदं त्यक्त्वा चतुर्धा पृथग्, धम्यं शुक्लमिति द्वयं सुगतिद ध्यानं जुषस्वानिशम् । नो चेक्लेशनृशंसकर्णिजनुरावर्ते भवाब्धी भ्रमन्, साधो सिद्धिव, विधास्यसि मुधोत्कण्ठामकुण्ठश्चिरम् ॥ १०३ ॥ .. मनके किसी भी एक विषयमें लीन होनेको ध्यान कहते हैं। यह दो प्रकारका होता है, एक मिथ्या दसरा समीचीन । मिथ्या भी दो प्रकारका होता है, एक आत दूसरा रौद्र । तथा समीचीन भी दो प्रकारका होता है, एक धर्म्य दूसरा शुक्ल । इनमें भी प्रत्येकके उत्तर मेद चार चार होते हैं । यथा आर्तध्यानके इष्टवियोग अनिष्टसंयोग पीडाचिन्तवन और निदान । रौद्रध्यानके हिसानन्द मृषानन्द चौर्यानन्द और परिग्रहानन्द । एवं अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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