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________________ मुमुक्षु भव्योंको परम आप्तकी सेवा करनेकेलिये प्रवृत्ति करनेका उपदेश देते हैं बनेगार यो जन्मान्तरतत्त्वभावनभुवा बोधेन बुद्ध्वा खयं, श्रेयोमार्गमपास्य घातिदरितं साक्षादशेष विदन । सद्यस्तीर्थकरत्वपक्त्रिमागरा कामं निरीहो जगत, तत्त्वं शास्ति शिवार्थभिः स भगवानाप्तोत्तमः सेव्यताम् ॥ १५ ॥ किसी पूर्व जन्ममें किये गये तत्वाभ्यासकी सामर्थ्यसे उत्पन्न हुए ज्ञानके द्वारा स्वयं ही मोक्षमार्गको जानकर और मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय इन चार पाति कर्मोको नष्ट कर समस्त वस्तुओंको और उनकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंको प्रत्यक्ष जानते हुए जो केवलज्ञानके उत्पन्न होते ही तीर्थकर नामक पुण्य कर्मके उदयसे उत्पन्न हुई वाणी-दिव्य ध्वनिके द्वारा, वीतराग होनेसे अपने उपदेशसे किसी भी प्रकारके फलकी वाञ्छा न करके, यथेष्ट रूपमें तनि जगत्के जीवोंको जीवादि तचोंका और मोक्षमार्गका उपदेश देता है उस आप्तोत्तमकी ही, जो कि इन्द्रादिकोंके द्वारा भी पूज्य है, मोक्षके अभिलाषियोंको आराधना करनी चाहिये। इस तरहके आप्तका निर्णय आजकलके लोगोंको किस तरह हो सकता है ? इसका उत्तर देते हैं: शिष्टानुशिष्टात् सोत्यक्षोप्यागमायुक्तिसंगमात् । पूर्वापराविरुद्धाच्च वेद्यतेद्यतनैरपि ॥ १६ ॥ सर्वज्ञके समयके लोक उसको देखकर जान सकते थे । किन्तु आज कलके लोक उसको नहीं देख सकते क्योकि वह अतीन्द्रिय है-चक्षुरादि इन्द्रियोंके अगोचर है। फिर भी उस आगमके द्वारा वह जाना जा सकता है, जो कि अध्याय १३१ A
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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