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________________ बनगार १३२ शिष्टों-जिन्होंने कि आप्तोपदेश के अनुसार शिक्षाविशेषका संपादन किया है ऐसे-स्वामी समन्तभद्र प्रभृति आचायोके द्वारा उपदिष्ट है, " आप्तका आगम प्रमाण है; क्योंकि वह यथावत् वस्तुका उपदेश देता है" इत्यादि युक्तियोंके द्वारा जो भले प्रकार संगत है, एवं जिसके भीतर किसी भी प्रकारसे पूर्वापर विरोध नहीं पाया जाता। क्योंकि वचनको देखकर ही उसके वक्ताके विषयमें प्रामाण्याप्रामाण्यका निश्चय किया जा सकता है। जिन वचनोंमें पूर्वापर विरोध है-एक जगह कहा जाता है कि "न हिंस्यात्सर्वभूतानि" अर्थात् किसी भी जीवकी हिंसा नहीं करनी चाहिये और दूसरी जगह कहा जाता है कि "यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा" अर्थात् स्वयंभूने इन पशुओंकी रचना यज्ञकलिये ही की है, उनको और जो युक्ति--प्रमाणसे संगत नहीं हैं ऐसे वचनोंको प्रमाण नहीं माना जासकता । किंतु जिनमें इस तरहका पूर्वापर विरोध नहीं है और युक्तिसंगत हैं वे ही वचन शिष्टों द्वारा उपदिष्ट माने जाते और प्रमाण समझे जाते हैं। क्योंकि वचनोंका सदोष और निर्दोष होना सदोष निर्दोष आशयके वक्ता व्यक्तियोंके ऊपर निर्भर है । शुभाशय व्यक्तियोंके सम्बन्धसे वचन प्रशस्त और दुष्टाशयोंके सम्बन्धसे दुष्ट हो जाया करता है । इसी बातको आगेके पचमें दृष्टांतद्वारा स्पष्ट करते हैं:-- विशिष्टमपि दुष्टं स्याद्वचा दुष्टाशयाश्रयम् । घनाम्बुवत्तदेवोच्चैर्वन्धं स्याचीर्थगं पुनः ॥ १७ ॥ जिस प्रकार गंगोदक वर्षानेवाले मेघका जल पथ्य होनेपर भी क्षित स्थानपर पडकर अपथ्य होजाता है। उसी प्रकार विशिष्ट-आप्तोपदिष्ट भी वचन दुष्टाशय-जिनके हृदयको दर्शनमोहनीय कर्मके उदयने १--यथा-आप्तनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमशिना भावतव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ [ रखकरंड-स्वामी समन्तभद्र ]
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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