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________________ अनगार ३७९ स्नेह अथवा वशित्वको प्राप्त हुई प्रगल्भा नायिका जो कि रतिकर्ममें पण्डित विभु दक्ष और आधिकार प्राप्त करचुकी है, जो विलासका विस्तार करनेमें नियूंढ-पूर्णतया समर्थ है नायिकके मनपर वह सुरतमें निराकुल होकर नायकके अंगमें इस तरहसे प्रविष्ट होजाती है जैसे कि कोई पतला पदार्थ । उस समयमें भिन्नताका भान बिलकुल नहीं होता। यहांतक कि यह कौन है, मैं कौन हूं, और यह क्या हो रहा है इसकी तरफ भी उसका लक्ष्य नहीं जाता। और भी कहा है किः - समरसरसरंगुं गमिण जिह रइया वझति । समरसरसरंगुग्गमिण तिह जोइय सिझंति ।। __ जिस प्रकार रागी पुरुष-नायक और नायिका मिल कर समरसके आनंदका अनुभव कर कर्मबंधको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार योगिजन आत्मस्वरूपमें लीनताके आनन्दका अनुभव कर सिद्धि प्राप्त करते हैं। कामिनियोंके कटाक्षका निरीक्षण देखनेमात्रमें ही मनोरम किंतु परिणाममें अत्यंत दारुण -भयानक. । है। यह बात वक्रोक्तिकी उपपत्तिद्वारा बताते हैं: चक्षुस्तेजोमयमिति मतेप्यन्य एवाग्निरक्ष्णो,रेणाक्षीणां कथामितरथा तत्कटाक्षा: सुधावत् । लोढा दृग्भ्यां ध्रुवमपि चरद्विष्वगप्यप्याय:, स्वान्तं पुंसां पविदहनवदग्धुमन्तवलन्ति ॥ ८॥ वैशेषिकोंका सिद्धान्त है कि दीपकके समान चक्षुरिन्द्रियमें भी रश्मि-किरणें पाई जाती है। अत एव वह PAREEKOREARRERARREREKARRANTHREAKERARIAREAKERARENAKETERENERENERA अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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