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________________ बनगार ४३. इत्येषा जनुषान्धतार्य सहजाहाथि हार्या त्वया, . स्फार्यात्मैव ममात्मजः सुविधिनोडर्ता सदेत्येव दृक् ॥ ११५ ॥ प्रतिकुल विधि-बाधक देव अथवा शास्त्रविरुद्ध विधान-आचरणका सहकारी बन कर जो जीवित -विद्यमान पिता पितामहादिकको कदर्थित कर-दुष्कर्मकी उदीरणा और तीव्र मोहकी उत्पत्तिसे पीडित कर शुद्ध चैतन्यरूप प्राणोंसे उन्हे वियुक्त करदेता है वह पुत्र उनके मरजानेपर उनको पिण्डदान जलतर्पण और ऋणशोधादिके द्वारा अच्छी तरह तृप्त करेगा ऐसी समझको अथवा इस आगमवाक्य या लोकोक्तिको भ्रांतिके सिवाय और क्या कहना चाहिये । हे आर्य ! साधो! इस तरहकी नैसर्गिक अथवा आहार्य-दुरुपदेशजन्य जात्यन्धताको तू छोड दे। तुझको तो यह निश्चित श्रद्धान करना चाहिये कि मेरा यह आत्मा ही मेरा वास्तविक पुत्र है । क्यों कि नित्य सम्यक्चारित्रका पालन कराकर यही संसारसमुद्रसे मेरा उद्धार करनेवाला है। भावार्थ-बहुतसे लोगों के नैसर्गिक अथवा अज्ञानको फैलनेमें हस्तावलम्बन देनेवाले कदागमके आधापर मिले हुए दुरुपदेशके निमित्तसे ऐसी भ्रांति बैठी हुई है कि पुत्र मरकर परलोकको गये हुए पितृ पि-. तामहादिकको पिण्डदानादि कर्म करके तृप्त किया करता है। किंतु यह वास्तव में भ्रांति ही है। क्योंकि जो पुत्र, चाहे वह विनयी हो चाहे अविनयी, जीवित पितादिकको तृप्त करना तो दूर रहा उल्टा क्लेश उपस्थित किया करता है और आत्महितसे दूर ही रखता है वह उनके मरनेपर क्या उन्हे कभी तृप्त कर सकता है ? कभी नहीं। क्योंकि यदि पुत्र कदाचित विनयी हो तब तो वह अपने विषयमें मोहके ग्रहको पितादिकके ऊपर सबार कराकर उनसे परलोकके विरुद्ध आचरण कराता है। और यदि अविनयी हो तब तो वह दुःखों के देने में उन्मुख होकर पितादिकके दुष्कर्मोंकी उदीरणाका निमित्त हो ही जाता है। अतएव हे आर्य ! इस परिग्रहको भी तू दुःखकर और आत्माके लिये अहितकर ही समझ और उसके विषयमें उक्त नैसर्गिक अथवा औपाधिक भ्रांतिको छोड । तथा अपनी उस आत्माको ही अपना पुत्र समझनेकी श्रद्धाको दृढ कर जो कि अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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