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________________ अनगार ७०७ मातेहुए-"संसारमें कोई भी प्राणी दुःखी नहो" इसतरहकी सामान्य, और "निगृह्णतो वाङ्मनसी" इत्यादि श्लोककेद्वारा पहले बताईहुई विशेष भावनाओंको भातेहए जो साधु अपने अहिंसादिक ब्रतोंको निर्मल बनाता है वहीं साधु धन्य है । क्योंकि ऐसा सुकृती साधु ही स्वर्ग और मोक्षरूप लक्ष्मीका साक्षात्कार करानेमें समर्थ चारित्रविन यका साधन कर सकता है। भावार्थ-ऊपरलिखे मूजब चारित्रके धारण करनेको चारित्र विनय कहते हैं। चारित्रविनय और चारित्राचारमें क्या अन्तर है, सो बताते हैं:. समित्यादिषु यत्नो हि चारित्रविनयो मतः । तदाचारस्तु यस्तेषु सत्सु यत्नो व्रताश्रयः ॥ ७० ॥ व्रतोंको निर्मल बनानेकोलिये समिति आदिमें प्रयत्न करनेको चारित्र विनय, और समित्यादिकोंके सिद्ध हो जानेपर व्रतोंकी वृद्धि आदिके लिये प्रयत्न करने को चारित्राचार कहते हैं। अब क्रमानुसार विनयके चौथे मेद औपचारिकविनयका वर्णन करते हैं। किन्तु उसमें सबसे पहले प्रत्यक्षमें पूज्य पुरुषोंका जो कायके द्वारा औपचारिक विनय किया जाता है उसके सात मेदोंका वर्णन करते हैं: अभ्युत्थानोचितवितरणोच्चासनायुज्झनानु,व्रज्या पीठाद्युपनयविधिः कालभावाङ्गयोग्यः । कृत्याचारः प्रणतिरिति चाङ्गेन सप्तप्रकारः, कार्यः साक्षाद्गुरुषु विनयः सिद्धिकामैस्तुरीयः ॥ १ ॥ आराध्य गुरुजनोंके साक्षात् उपस्थित रहनेपर स्वात्मोपलब्धिकी इच्छा रखनेवाले साधुओंको अपने शरीरके द्वारा उनका अभ्युत्थानादिक सात प्रकारका औपचारिक विनय करना चाहिये । यथा - बध्याय ७०७
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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