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बववार
मूलाराधनाके सुस्थित सूत्रकी टीका देखनी चाहिये । वहांपर इसका विशेष खुलासा किया गया है। अतएव ग्रन्थ विस्तारके भयसे यहांपर उसका विशेष वर्णन नहीं किया जाता । और इसीलिये श्री पवनन्दि आचार्यने मी सचे. लताके क्षणोंको संक्षेपमें ही बताया है। यथा:
म्लाने बाळनतः कृतः कृतजलाद्यारम्भतः संयमो,नष्टे व्याकुलचित्तताव महातामप्यन्यतःप्रार्थनम् । कोपीनेऽपि ते परैध गिति क्रोधः समुत्पद्यते,
तन्नित्यं शुचिरागहच्छमवतां वस्त्रं ककुम्मण्डलम् ॥ साधुओंके लिये कौपीनमात्र वनके मी धारण करनेमें कितना कष्ट और उत्कृष्टता या संयममें दोष उपस्थित होता है इसपर विचार करना चाहिये । कौपीनके मलिन होनेपर अवश्य ही उसको धोनेकालये प्रवृत्ति करनी पडेगी, और फिर उसकेलिये जलाने आदिका आरम्भ भी करना ही होगा। ऐसी अवस्थामें उसका संयम किस प्रकार स्थिर रह सकता है? नहीं रह सकता । यदि दूसरेको धोनेकेलिये दिया जाय तो भी हिंसा करानेके अपराधसे छुटकारा नहीं होता। कदाचित कौपीन कहीं गिरजाय खोजाय हवा में उडजाय या फट जाय तो मनमें व्याकुलता आये विना नहीं रह सकती। अथवा उसकलिये दूसरेसे प्रार्थना भी करनी ही पडेगी। और ऐसी अवस्थामें याचनाके निमित्चसे उनकी महत्ता या गुरुतामें कुछ न कुछ लघुता भी आये विना नहीं रह सकती। यदि कदाचित् उसको कोई चुरा लेजाय अथवा छींडले तो तत्काल क्रोध भी आये बिना नहीं रह सकता। अत एव परम शांतिकी इच्छा रखनेवाले मुमुक्षुओंको यही उचित है कि वे सम्पूर्ण दिशाओंके समूहको ही वस्त्रके स्थानपर धारण करें। या वन नित्य है-नैसर्गिक होनेसे कभी भी नष्ट होनेवाला या चोरी जानेवाला नहीं, समस्त मलदोषोंसे रहित होने के कारण अत्यंत पवित्र है, एवं रागद्वेषको दूर करनेवाला है, इसके निमित्तसे याचना आदिके द्वारा लघुता प्राप्त नहीं होती, बौर न याचनाके व्यर्थ जानेपर मान मंग आदिके द्वारा चित्तमें किसी प्रकारकी कम्मलता ही उत्पन होती है। अत: संयमियोंको यह निर्विकार बन ही धारण करना चाहिये । जैसा कि श्री सोमदेव आचार्यने भी कहा है कि:-..