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हेतुद्वैतबलादुदीर्णसुदृशः सर्वसहाः सर्वश,स्त्यक्त्वा सङ्गमजस्रसुश्रुतपराः संयम्य साक्षं मनः । ध्यात्वा वे शमिनः स्वयं स्वममलं निर्मूल्य कर्माखिलं, ये शर्मप्रगुणैश्चकासति गुणैस्ते भान्तु सिद्धा मयि ॥१॥
अनगार
धर्म
दोनो हेतुओंके बलसे उद्गत है सम्यग्दर्शन जिनका, और जो समस्त परीषहों व उपसगोंको जीतकर तथा परिग्रहका सर्वथा त्याग कर निरंतर समीचीन श्रुतके अभ्यासमें तत्पर रह इन्द्रियों व मनका निरोध कर तृष्णारहित हो अपनी आत्मामें अपने निर्मल आत्मस्वरूपका ही ध्यान कर जो जीव समस्त कर्मोंका मूलोच्छेदन कर, सुख ही है प्रधान स्वरूप जिनका ऐसे सिद्ध पदको, प्राप्त करलेते हैं; और अपने उन गुणोंके द्वारा नित्य ही प्रकाशमान रहते हैं वे मेरी आत्मामें प्रकाशित हों।..
भावार्थ-'हिनोति इति हेतुः' इस निरुक्तिके अनुसार जो कार्यको कारकपनेसे और ज्ञाप्यको ज्ञापकपने-' से व्याप्त करता है उसको हेतु कहते हैं । इसीलिये हेतु दो प्रकारका होता है; एक कारकहेतु दूसरा ज्ञापक हेतु । किंतु यहांपर केवल कारकहेतुको ही ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि सम्यग्दर्शनादिके साथ जो उदीर्ण आदि पद दिया है उससे उनके कार्यरूप बतानेका ही प्रयोजन [ अभिप्राय ] है।
कारक हेतु भी दो प्रकारका होता है; एक अंतरंग दूसरा बाह्य । इन दोनो हेतुओंकी सामर्थ्यसे जिन जीवोंके सम्यग्दर्शन प्रगट होगया है और उसके बाद क्रमसे जिन्होंने परिग्रहका त्याग कर निरंतर समीचीन श्रुतका अभ्यास किया है और उसके बाद इंद्रिय व मनका निरोध कर जिन्होंने शुद्धात्माका ध्यान किया है वे जीव अंतमें समस्त कर्मोको निर्मूल कर सुखमय सिद्ध अवस्था प्राप्त करलेते हैं। इन्हीको
अध्याय