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________________ अनगार अध्याय १ पूर्ण परमात्मा कहते हैं। और ये ही सब जीवोंके लिये ध्येय हैं । अत एव ग्रंथकार उनकी स्तुति करते भावना प्रकट करते हैं कि वे सिद्ध भगवान् मेरी आत्मामें प्रकाशित हों मुझे भी वह परमात्म अवस्था प्राप्त हो । यद्यपि यहांपर अंतर और बाह्य कारणोंकी सामर्थ्यका सम्बन्ध सम्यग्दर्शनकी प्रकटताके साथ ही दिखाया है; फिर भी उसके अनंतर निर्दिष्ट और उसके उत्पन्न होजानेपर ही उत्पन्न होनेवाले परिब्रहत्यागादि कार्यों के साथ भी उसका सम्बन्ध लगालेना चाहिये। क्योंकि वह शब्द आदिदीपक है. और इसके सिवाय एक बात यह भी है कि, सभी कार्यों की उत्पत्ति अंतरंग और बाह्य दोनो कारणोंके ऊपर ही निर्भर है । इन दोनो कारणों के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता । सम्यक्त्वके अंतरंग कारण - निकटभव्यता आदि और बाह्य कारण उपदेश आदिक हैं । जैसा कि आयममें भी कहा है । यथाः - आसन्नभव्यताकर्महानि संज्ञित्वशुद्ध परिणामाः । सम्यक्त्वहेतुरान्तर्बाह्योप्युपदेशकादिश्च ॥ · निकट भव्यता, कर्महानि, संशित्व और शुद्ध परिणाम ये सम्यग्दर्शनके अंतरंग कारण हैं। और बाह्य कारण उपदेशादिक हैं। यहांपर सम्यग्दर्शनके ही अंतरंग और बाह्य कारण बताये हैं । किंतु इसी तरह परिग्रहत्यागादिकके भी दोनो कारण होते हैं; जो कि आगमके अनुसार दूसरे ग्रंथोंसे समझ लेने चाहिये । सम्यग्दर्शनमें जो दर्शन - शब्द है वह यद्यपि दृश् धातुसे बना है जिसका कि अर्थ देखना होता है। फिर भी यहां पर उसका अर्थ श्रद्धान ही करना चाहिये । क्योंकि, प्रकरण के अनुसार धातुओंके अनेक अर्थ हुआ करते हैं । यथा: निपाताश्रोपसर्गाच घातवश्वेति ते त्रयः । अनेकार्थाः स्मृताः सद्भिः पाठस्तेषां निदर्शनम् ॥ निपात उपसर्ग और धातु इन तीनोंके अनेक अर्थ होते हैं। किंतु कहांपर किसका क्या अर्थ होना चाहिये ! 鬆鬆鬆 धर्म
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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