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________________ अनगार १६ हुआ है ? पूर्व पर्याय तो क्या, इसी पर्यायमें तू प्रतिक्षण नष्ट हो हो कर नवीन ही उत्पन्न हो रहा है ? अन्य. था अभी थोडे ही समय पहले जिन सुखों और दुःखोंको तेने भोगा था उनका भी तुझे स्मरण क्यों नहीं होता? अथवा ठीक ही है, इस लोकमें प्राणिमात्रको निगलजानेवाले मोहको क्या किसी भी प्राणीके विषयमें ग्लानि होती है ? नहीं । यही कारण है कि तुझको उन दुःखकर या सुखकर स्थानोंका स्मरण नहीं होता, अथवा होकर भी उनकी तरफसे तुझे उपेक्षा नहीं होती । क्योंकि मोहके प्रसादसे जीव ऐसा मूञ्छित रहता है जिससे कि संसा रके वास्तविक स्वरूपकी तरफ उसका लक्ष्य ही नहीं जाता। संसारकी दुरवस्थाका स्वयं विचार करनेकेलिये उपदेश देते हैं: अनादौ संसारे विविधविपदातङ्कनिचिते, मुहुः प्राप्तस्तां तां गतिमगतिकः किं किमवहम् । अहो नाहं देहं कमथ न मिथो जन्यजनका,द्यपाधि केनागां स्वयमपि हहा स्वं व्यजनयम् ॥ ६३ ॥ अध्याय इष्टवियोग और अनिष्टसंयोगके द्वारा आकर प्राप्त होनेवाली नाना प्रकारकी विपत्तियों और उनसे | होनेवाले क्लेशोंसे अत्यंत भरे हुए इस अनादि संसारमें उसके दुःखोंसे छूटनेका कोई भी उपाय न पाकर भला कौन कौनसी गतिको मैंने अनेक वार नहीं पाया है ? नारक तिर्यक् और मनुष्य आदि सभी गतियोंमें तो मैंने बार चार भ्रमण किया है । तथा कौनसा ऐसा शरीर है कि जिसको मैंने धारण नहीं किया, सिवाय उसके कि जो सम्यक्त्वके सहचारी पुण्यकर्मके उदयसे ही प्राप्त होता है । और तो काले गोरे छोटे मोटे ऊंचे नीचे आदि अ नेक प्रकारके वर्ण और संस्थानके प्रायः सभी शरीरोंको मैंने धारण किया है। इसी प्रकार ऐसा कौनसा जीव है कि जिसके साथ मैंने पिता पुत्रादिके सम्बन्धकी उपाधि नहीं पाई है ? जिस जीवका कभी पुत्र हुआ हूं तो कभी उसीका पिता भी हुआ हूं, कभी सेवक हुआ हूं तो कभी स्वामी भी हुआ हूं। और यदि कभी मोज्य हुआ हूं तो कभी उसीका
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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