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________________ अनगार ४० अध्याय १ इन्ही भावों और रसोंसे नाटक पूर्ण रहता है । अत एव इस कथनसे यह बात सहज ही समझमें आसकती है कि यह संसार भी एक नाटकके ही समान है, जो कि नव रस और उसके जनक तथा अभिव्यञ्जक भावोंसे भरा हुआ है और अपने दर्शकोंको आनन्दका जनक है । जो आत्मा संसारसे रहित होकर इस नवरससे पूर्ण संसाररूपी नाटकका निर्विकल्प होकर दर्शन - अनुभव करते रहते हैं वे अनंतकाल तक सुखसुधाका पान करते रहते हैं। इस तरहका शीघ्र ही श्रद्धान करलेने वाले सरलपरिणामी श्रोता आजकल बहुत ही विरल हैं। अतएव यदि उनको स्वयं सुननेकी इच्छा न हो तो भी परोपकार करनेवालोंको उन्हें सुननेकी इच्छा उत्पन्न कराकर चाहिये धर्मका उपदेश देना क्योंकि उपदेश व्यर्थ नहीं जा सकता। उससे कभी न कभी कोई न कोई अपने हितमें लग सकता है । बहुशोप्युपदेशः स्यान्न मन्दस्यार्थसंविदे । भवति ह्यन्धपाषाण : केनोपायेन काञ्चनम् ॥ १३॥ जो मंद है - मिथ्यात्वादिकसे मदा इस तरह ग्रस्त रहता है कि उसको सम्यग्दर्शनादिककी उत्पत्ति हो ही नहीं सकती, उसको यदि बार बार भी उपदेश दिया जाय आप्तके स्वरूपका ज्ञान कराया जाय तो भी उसके हृदय में हेय और उपादेय तत्त्वका समीचीन ज्ञान व श्रद्धान नहीं हो सकता । अन्ध पाषाण - जिसमें कि सुवर्ण पृथक है ही नहीं ऐसा पत्थर - क्या किसी भी उपायसे सुवर्ण हो सकता है ? भव्य उपदेशका पात्र हो सकता है सो बताते हैं । श्रोतुं वाञ्छति यः सदा प्रवचनं प्रोक्तं शृणोत्यादराद्, गृह्णाति प्रयतस्तदर्थमचलं तं धारयत्यात्मवत् । तायैः सह संविदत्यपि ततोन्यांश्च हतेऽपोहते, तत्तत्त्वाभिनिवेशमावहति च ज्ञाप्यः स धर्मं सुधीः ॥ १४ ॥ भव्यों में भी किस तरहका 3287444555240 धर्म० ४०
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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