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बनगार
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नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं यथा ॥ ६॥ जिस प्रकार उद्दीप्त होनेवाली कल्लोलमालाओं-तरंगपंक्तियोंमें जल एक ही स्थित रहता है-तरंगोंकी चंचलताके कारण जलमें किसी प्रकारका भेद नहीं होता । उसी प्रकार अपने नाना विशेषोंमें देव गुरु शास्त्र द्रव्य तच्च प्रभृतिमें चलायमान होनेवाले क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनको चल कहते हैं। - इसी चल सम्यग्दर्शनका उल्लेख -आकार बताते हैं:--
समेप्यनन्तशक्तित्वे सर्वेषामर्हतामयम् ।
देवोस्मै प्रभुरेष स्मा इत्यास्था सुदृशामपि ॥ ६१ ॥ सभी अर्हत समानरूपसे अनन्तशक्तिके धारक हैं। फिर भी उनके विषयमें सम्यग्दृष्टियोंकी भी इस तरहकी आस्था-प्रतीति होने लगती है कि "ये देव-पार्श्वनाथ भगवान् इस कार्यकेलिये-उपसर्ग दूर करनेकेलिये समर्थ हैं, और शांतिनाथ भगवान् अमुक कार्यकेलिये-शान्ति स्थापनकालिये समर्थ हैं"।
... 'इस प्रकार क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनमें सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयसे जो अगाढता आदि दोष उत्पन्न होते हैं उनका स्वरूप बताया । किन्तु इस विषयमें और भी कहा है जो कि इस प्रकार है:
कियन्तमपि यत्कालं स्थित्त्वा चलति तञ्चलम् । वेदकं मलिनं जातु शङ्कायर्यत्कलङ्कयते । यञ्चल मलिनं चास्मादगाढमनवस्थितम । नित्यं चान्तर्मुहूर्तादिषट्रषष्टयब्ध्य न्तवर्ति यत् ॥
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